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________________ द्वितीय अध्ययन : संघाट ] [१३१ को वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके] यावत् वह प्रवजित हो गया। यावत् बहुत वर्षों तक श्रामण्य-पर्याय पाल कर, आहार का प्रत्याख्यान करके एक मास की संलेखना करके, अनशन से साठ भक्तों को त्याग कर, कालमास में काल करके सौधर्म देवलोक में देव के रूप में उत्पन्न हुआ। सौधर्म देवलोक में किन्हीं-किन्हीं देवों की चार पल्योपम की स्थिति कही है। धन्य नामक देव की भी चार पल्योपम की स्थिति (आयुष्यमर्यादा) कही है। वह धन्य नामक देव आयु के दलिकों का क्षय करके, आयुकर्म की स्थिति का क्षय करके तथा भव (देवभव के कारणभत गति आदि कर्मों) का क्षय करके. देह का त्याग करके अनन्तर ही अर्थात बीच में अन्य कोई भव किये विना ही महाविदेह क्षेत्र में (मनुष्य होकर) सिद्धि प्राप्त करेगा यावत् सर्व दुखों का अन्त करेगा। उपसंहार ५३-जहा णं जंबू! धण्णेणं सत्थवाहेणं नो धम्मो त्ति वा जाव' विजयस्स तक्करस्स तओ विपुलाओ असण-पाण-खाइम-साइमाओ संविभागे कए नन्नत्थ सरीरसारक्खणट्ठाए, एवामेव जंबू! जे णं अम्हं निग्गंथे वा निग्गंथी वा जाव पव्वईए समाणे ववगयण्हाणुम्मद्दण-पुष्फ-गंधमल्लालंकार-विभूसे इमस्स ओरालियसरीरस्स नो वण्णहेउं वा, रूवहेउं वा, विसयहेउं वा असणपाण-खाइम-साइमं आहारमाहारेइ, नन्नत्थ णाण-दंसण-चरित्ताणं वहणयाए। से णं इह लोए चेव बहूणं समणाणं समणीणं सावगाण य साविगाण य अच्चणिजे जाव(वंदणिज्जे नमंसणिजे पूयणिज्जे सक्कारणिज्जे सम्माणणिज्जे कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं विणएणं) पज्जुवासणिजे भवइ। परलोए वि य णं नो बहूणि हत्थच्छेयणाणि य कनच्छेयणाणि य नासाछेयणाणि य एवं हिययउप्पाडणाणि य वसणुप्पाडणाणि य उल्लंबणाणि य पाविहिइ।अणाईयं च णं अणवदग्गं दीह जाव ( अद्धं चाउरंतं संसारकंतारं) वीइवइस्सइ; जहा से धण्णे सत्थवाहे। ___श्री सुधर्मा स्वामी ने जम्बू स्वामी से कहा-हे जम्बू! जैसे धन्य सार्थवाह ने 'धर्म है ' ऐसा समझ कर या तप, प्रत्युपकार, मित्र आदि मान कर विजय चोर को उस विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम में से संविभाग नहीं किया था, सिवाय शरीर की रक्षा करने के, अर्थात् धन्य सार्थवाह ने केवल शरीररक्षा के लिए ही विजय को अपने आहार में हिस्सा दिया था, धर्म या उपकार आदि समझ कर नहीं। इसी प्रकार हे जम्बू! हमारा जो साधु या साध्वी यावत् प्रव्रजित होकर स्नान, उपामर्दन, पुष्प, गंध, माला, अलंकार आदि श्रृंगार का त्याग करके अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार करता है, सो इस औदारिक शरीर के वर्ण के लिए, रूप के लिए या विषय-सुख के लिए नहीं करता। ज्ञान, दर्शन और चारित्र को वहन करने के सिवाय उसका अन्य कोई प्रयोजन नहीं होता। वह साधुओं साध्वियों श्रावकों और श्राविकाओं द्वारा इस लोक में अर्चनीय [वन्दनीय, नमस्करणीय, पूजनीय, सत्करणीय और सन्माननीय होता है। उसे भव्यजन कल्याणमय, मंगलमय, देवस्वरूप और चैत्यस्वरूप मानकर वन्दन करते हैं] वह सर्व प्रकार से उपासनीय होता है। परलोक में भी वह हस्तछेदन (हाथों का काटा जाना), कर्णछेदन और नासिकाछेदन को तथा इसी प्रकार हृदय के उत्पाटन (उखाड़ना) एवं . १. द्वि. अ. सूत्र ४७
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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