________________
११२]
[ज्ञाताधर्मकथा मन्ने णियगकुच्छिसंभूयाइं थणदुद्धलुद्धयाई महुरसमुल्लावगाइं मम्मणपयंपियाइं थणमूला कक्खदेसभागं अभिसरमाणाई मुद्धयाइं थणयं पिबंति। तओ य कोमलकमलोवमेहिं हत्थेहिं गिण्हिऊणं उच्छंगे निवेसियाइं देन्ति समुल्लावए पिए सुमहुरे पुणो पुणो मंजुलप्पभणिए।
तं अहं णं अधन्ना अपुन्ना अलक्खणा अकयपुन्ना एत्तो एगमवि न पत्ता।'
धन्य सार्थवाह की भार्या भद्रा एक बार कदाचित् मध्यरात्रि के समय कुटुम्ब सम्बन्धी चिन्ता कर रही थी कि उसे इस प्रकार का विचार [चिन्तन, अभिलाष एवं मानसिक संकल्प] उत्पन्न हुआ
बहुत वर्षों से मैं धन्य सार्थवाह के साथ शब्द, स्पर्श, रस, गन्ध और रूप यह पांचों प्रकार के मनुष्य सम्बन्धी कामभोग भोगती हुई विचर रही हूँ, परन्तु मैंने एक भी पुत्र या पुत्री को जन्म नहीं दिया।
वे माताएँ धन्य हैं, यावत् [वे माताएँ प्रशस्त पुण्य वाली हैं, वे माताएँ कृतार्थ हैं-पूर्ण मनोरथ वाली हैं, वस्तुतः उन माताओं ने पुण्य उपार्जन किया है, उन माताओं के लक्षण सार्थक हुए हैं और वे माताएँ वैभवशालिनी हैं], उन माताओं को मनुष्य-जन्म और जीवन का प्रशस्त-भला फल प्राप्त हुआ है, जो माताएँ, मैं मानती हूँ कि, अपनी कोख से उत्पन्न हुए, स्तनों का दूध पीने में लुब्ध, मीठे बोल बोलने वाले, तुतला-तुतला कर बोलने वाले और स्तन के मूल से काँख के प्रदेश की ओर सरकने वाले मुग्ध बालकों को स्तनपान कराती हैं और फिर कमल के समान कोमल हाथों से उन्हें पकड़ कर अपनी गोद में बिठलाती हैं और बार-बार अतिशय प्रिय वचन वाले मधुर उल्लाप देती हैं।
मैं अधन्य हूँ, पुण्यहीन हूँ, कुलक्षणा हूँ और पापिनी हूँ कि इनमें से एक भी (विशेषण) न पा सकी।
१२-तंसेयं मम कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव' जलंते धण्णं सत्थवाहंआपुच्छित्ता धण्णेणं सत्थवाहेणं अब्भणुनाया समाणी सुबहुं विउलं असण-पाण-खाइम-साइमं उवक्खडावेत्ता सुबहु पुष्फ-वत्थ-गंध-मल्लालंकारं गहाय बहूहि मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधी-परिजणमहिलाहिं सद्धिं संपरिवुडा जाइंइमाइं रायगिहस्स नगरस्स बहिया णागाणि य भूयाणि यजक्खाणि य इंदाणि य खंदाणि य रुहाणि य सिवाणि य वेसमणाणि य तत्थ णं बहूणं नागपडिमाण य जाव वेसमणपडिमाण य महरिहं पुष्फच्चणियं करेत्ता जाणुपायपडियाए एवं वइत्तए-जइ णं अहं देवाणुप्पिया! दारगं वा दारिगं वा पायायामि, तो णं अहं तुब्भं जायं च दायं च भायं च अक्खयणिहिं च अणुवड्डेमि त्ति कट्ट उवाइयं उवाइत्तए।
अतएव मेरे लिए यही श्रेयस्कर है कि कल रात्रि के प्रभात रूप में प्रकट होने पर और सूर्योदय होने पर धन्य सार्थवाह से पूछ कर, धन्य सार्थवाह की आज्ञा प्राप्त करके मैं बहुत-सा अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार तैयार कराके बहुत-से पुष्प वस्त्र गंधमाला और अलंकार ग्रहण करके बहुसंख्यक मित्र, ज्ञातिजनों, निजजनों, स्वजनों, सम्बन्धियों और परिजनों की महिलाओं के साथ-उनसे परिवृत होकर, राजगृह नगर के बाहर जो नाग, भूत, यक्ष, इन्द्र, स्कन्द, रुद्र, शिव और वैश्रमण आदि देवों के आयतन हैं और उनमें जो नाग की प्रतिमा यावत् वैश्रमण की प्रतिमाएँ हैं, उनकी बहूमूल्य पुष्पादि से पूजा करके घुटने और पैर झुका कर अर्थात् उनको नमस्कार करके इस प्रकार कहूँ-'हे देवानुप्रिय! यदि मैं एक भी पुत्र या पुत्री को जन्म दूंगी तो
१. प्र. अ. सूत्र १८