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________________ द्वितीय अध्ययन : संघाट सार : संक्षेप साधना के क्षेत्र में प्रबल से प्रबल बांधा आसक्ति है। आसक्ति वह मनोभाव है, जो आत्मा को परपदार्थों की ओर लालायित बनाता है, आकर्षित करता है और आत्मानन्द की ओर से विमुख करता है। साधना में एकाग्रता के साथ तल्लीन रहने के लिए आसक्ति को त्याग देना आवश्यक है, स्पर्श, रस, गंध रूप और शब्द जब इन्द्रियों के माध्यम से आत्मा ग्रहण करता अर्थात् जानता है, तब मन उस जानने के साथ राग-द्वेष का विष मिला देता है। इस कारण आत्मा में 'यह इष्ट है, यह अनिष्ट है' इस प्रकार का विकल्प उत्पन्न होता है। इष्ट प्रतीत होने पर उस विषय को प्राप्त करने के लिए उत्सुक हो जाता है। उसका समत्वयोग खण्डित हो जाता है, समाधिभाव विलीन हो जाता है और वैराग्य नष्ट हो जाता है। ऐसी स्थिति में साधक अपनी मर्यादा से पतित हो जाता है और कभी-कभी उसके पतन की सीमा नहीं रहती। आसक्ति के इन खतरों को ध्यान में रख कर शास्त्रकारों ने अनेक प्रकार से आसक्ति-त्याग का उपदेश दिया। अपने से प्रत्यक्ष पृथक् दीखने वाले पदार्थों की बात जाने दीजिए, अपने शरीर के प्रति भी आसक्त न रखने का विधान किया है। कहा है अवि अप्पणो वि देहमि, नायरंति ममाइयं। मुनिजन अपने शरीर पर भी ममत्व नहीं रखते। कहा जा सकता है यदि शरीर के प्रति ममता नहीं है तो आहार-पानी आदि द्वारा उसका पोषणसंरक्षण क्यों करते हैं ? इस प्रश्न के समाधान के लिए ही इस अध्ययन की रचना की गई है और एक सुन्दर उदाहरण द्वारा समाधान किया गया है। दृष्टान्त का संक्षेप इस प्रकार है राजगृह नगर में धन्य सार्थवाह था। उसकी पत्नी का नाम भद्रा था। धन्य समृद्धिशाली था, प्रतिष्ठाप्राप्त था किन्तु निःस्सन्तान था। उसकी पत्नी ने अनेक देवताओं की मान्यता-मनौती की, तब उसे एक पुत्र की प्राप्ति हुई। दैवी कृपा का फल समझ कर उसका नाम 'देवदत्त' रक्खा गया। देवदत्त कुछ बड़ा हुआ तो एक दिन भद्रा ने उसे नहला-धुलाकर और अनेक प्रकार के आभूषणों से सिंगार कर अपने दास-चेटक पंथक को खिलाने के लिए दे दिया। पंथक उसे ले गया और उसे एक स्थान पर बिठलाकर स्वयं गली के बालकों के साथ खेलने लगा। देवदत्त का उसे ध्यान ही न रहा। इस बीच राजगृह का विख्यात निर्दय और नृशंस चोर विजय घूमता-घामता वहाँ जा पहुंचा और आभूषण-सज्जित बालक देवदत्त को उठाकर चल दिया। नगर से बाहर ले जाकर उसके आभूषण उतार लिए और उसे एक कुए में फेंक दिया। बालक के प्राण-पखेरू उड़ गए।
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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