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________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात] [९५ वह अपने जीव के बल से ही चलते एवं जीव के बल से ही खड़े रहते। भाषा बोलकर थक जाते, बात करते-करते थक जाते, यहाँ तक कि 'मैं बोलूंगा' ऐसा विचार करते ही थक जाते थे। तात्पर्य यह है कि पूर्वोक्त उग्र तपस्या के कारण उनका शरीर अत्यन्त ही दुर्बल हो गया था। २०२-से जहानामए इंगालसगडियाइ वा, कट्ठसगडियाइ वा, पत्तसगडियाइ वा, तिलसगडियाइ वा, एरंडकट्ठसगडियाइ वा, उण्हे दिन्ना सुक्का समाणी ससदं गच्छइ, ससई चिट्ठइ, एवामेव मेहे अणगारे ससइंगच्छइ, ससई चिट्टइ, उवचिए तवेणं, अवचिए मंससोणिएणं, हयासणे इव भासरासिपरिच्छन्ने, तवेणं तेएणं तवतेयसिरीए अईव अईव उवसोभेमाणे उवसोभेमाणे चिट्ठइ। जैसे कोई कोयले से भरी गाड़ी हो, लकड़ियों से भरी गाड़ी हो, सूखे पत्तों से भरी गाड़ी हो, तिलों (तिल के डंठलों) से भरी गाड़ी हो, अथवा एरंड के काष्ठ से भरी गाड़ी हो, धूप में डाल कर सुखाई हुई हो, अर्थात् कोयला, लकड़ी, पत्ते आदि खूब सुखा लिये गये हों और फिर गाड़ी में भरे गये हों, तो वह गाड़ी खड़बड़ की आवाज करती हुई चलती है और आवाज करती हुई ठहरती है, उसी प्रकार मेघ अनगार हाड़ों की खड़खड़ाहट के साथ चलते थे और खड़खड़ाहट के साथ खड़े रहते थे। वह तपस्या से तो उपचित-वृद्धिप्राप्त थे, मगर मांस और रुधिर से अपचित-हास को प्राप्त हो गये थे। वह भस्म के समूह से आच्छादित अग्नि की तरह तपस्या के तेज से देदीप्यमान थे। वह तपस्तेज की लक्ष्मी से अतीव शोभायमान हो रहे थे। २०३–तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे आइगरे तित्थयरे जाव' पुव्वाणुपुट्विं चरमाणे, गामाणुगाम दूइज्जमाणे सुहंसुहेणं विहरमाणे, जेणामेव रायगिहे नगरे जेणामेव गुणसिलए चेइए तेणामेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर धर्म की आदि करने वाले, तीर्थ की स्थापना करने वाले, यावत् अनुक्रम से चलते हुए, एक ग्राम से दूसरे ग्राम को पार करते हुए, सुखपूर्वक विहार करते हुए, जहाँ राजगृह नगर था और जहाँ गुणशील चैत्य था, उसी जगह पधारे। पधार कर यथोचित अवग्रह (उपाश्रय) की आज्ञा लेकर संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। समाधिमरण २०४-तएणं तस्स मेहस्स अणगारस्स राओ पुनरत्तावरत्तकालसमयंसिधम्मजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झथिए जाव(चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे ) समुप्पज्जित्था ‘एवं खलु अहं इमेणं उरालेणं तहेव जाव भासं भासिस्सामि त्ति गिलामि, तं अत्थिता मे उट्ठाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसक्कार-परक्कमे सद्धा धिई संवेगे तं जाव ता मे अस्थि उट्ठाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसक्कार-परक्कमे सद्धा धिई संवेगे जाव य मे धम्मायरिए धम्मोवएसए समणे भगवं महावीरे जिणे सुहत्थी विहरइ, ताव ताव मे सेयं कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव तेयसा जलंते १. प्र. अ. सूत्र ८ २. प्र. अ. सूत्र २०१ ३. प्र. अ. सूत्र २८.
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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