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प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात]
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हे मेघ! तब प्राणानुकम्पा यावत् (भूतानुकम्पा, जीवानुकम्पा तथा) सत्त्वानुकम्पा से तुमने संसार परीत किया और मनुष्यायु का बन्ध किया।
विवेचन-साधारणतया प्राण, भूत, जीव और सत्त्व शब्द एकार्थक हैं तथापि प्रत्येक शब्द की एक विशिष्ट प्रकृति होती है और उस पर गहराई से विचार करने पर एकार्थक शब्द भी भिन्न-भिन्न अर्थ वाले प्रतीत होने लगते हैं। इसके अतिरिक्त कहीं-कहीं रूढ़ि अथवा परिभाषा के अनुसार भी शब्दों का विशिष्ट अर्थ नियत होता है। प्राण, भूत आदि शब्दों का यहाँ जो विशिष्ट अर्थ किया गया है वह शास्त्रीय रूढि के आधार पर समझना चाहिए। ऐसा न किया जाय तो सत्र में प्रयुक्त 'भयानकप्पाए' आदि तीन शब्द निरर्थक हो जाएंगे। किन्तु यह भी स्मरण रखना चाहिए कि आगमों में क्वचित विभिन्न देशीय शिष्यों की सुगमता के लिए पर्यायवाचक शब्दों का प्रयोग भी उपलब्ध होता है।
जीवानुकम्पा एक शुभ भाव है-पुण्य रूप परिणाम है। वह शुभकर्म के बन्ध का कारण होता है। यही कारण है, जिससे मेरुप्रभ हाथी ने मनुष्यायु का बन्ध किया जो एक शुभ कर्म-प्रकृति है।
शशक एक कोमल काया वाला छोटे कद का प्राणी है-भोला और भद्र। उसे देखते ही सहज रूप में प्रीति उपजती है। आगमोक्त विभाजन के अनुसार शशक पंचेन्द्रिय होने से जीव की गणना में आता है। उसकी अनुकम्पा जीवानुकम्पा कही जा सकती है। हाथी के चित्त में उसी के प्रति अनुकम्पा उत्पन्न हुई थी। फिर मूल पाठ में प्राणानुकम्पा, भूतानुकम्पा और सत्त्वानुकम्पा के उत्पन्न होने का उल्लेख कैसे आ गया? इस प्रश्न का समाधान यह प्रतीत होता है कि शशक के निमित्त से अनुकम्पा का जो भाव उत्पन्न हुआ, वह शशक तक ही सीमित नहीं रहा-विकसित हो गया, व्यापक बनता गया और समस्त प्राणियों तक फैल गया। उसी व्यापक दया-भावना की अवस्था में हाथी ने मनुष्यायु का बंध किया।
१८४-तए णं वणदवे अड्डाइज्जाइं राइंदियाइं तं वणं झामेइ, झामेत्ता निट्ठिए, उवरए, उवसंते, विज्झाए. यावि होत्था।
तत्पश्चात् वह दावानल अढ़ाई अहोरात्र पर्यन्त उस वन को जला कर पूर्ण हो गया, उपरत हो गया, उपशान्त हो गया और बुझ गया।
१८५-तए णं ते बहवे सीहा य जाव चिल्लला य तं वणदवं निट्टियं जाव विज्झायं पासंति, पासित्ता अग्गिभयविप्पमुक्का तण्हाए य छुहाए य परब्भाहया समाणा तओ मंडलाओ पडिनिक्खमंति। पडिनिक्खमित्ता सव्वओ समंता विप्पसरित्था।
तब उन बहुत से सिंह यावत् चिल्ललक आदि पूर्वोक्त प्राणियों ने उन वन-दावानल को पूरा हुआ यावत् बुझा हुआ देखा और देखकर वे अग्नि के भय से मुक्त हुए। वे प्यास एवं भूख से पीड़ित होते हुए उस मंडल से बाहर निकले और निकल कर सब दिशाओं और विदिशाओं फैल गये।
१८६-तए णं मेहा! जुन्ने जराजजरियदेहे सिढिलवलितयापिणिद्धगत्ते दुब्बले किलंते गँजिए पिवासिए अत्थामे अबले अपरक्कमे अचंकमणे वा ठाणुखंडे वेगेण विप्पसरिस्सामि त्ति कट्ट पाए पसारेमाणे विज्जुहए विव रययगिरिपब्भारे धरणियलंसि सव्वंगेहिं य सन्निवइए।