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प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ]
[८५ अब्भहियवणदवेणं जालालोवियनिरुद्धधूमंकारभीओ आयवालोयमहंततुंबइयपुन्नकन्नो आकुंचियथोर-पीवरकरो भयवस-भयंतदित्तनयणो वेगेण महामेहो व्व पवणोल्लियमहल्लरूवो, जेणेव कओ ते पुरा दवग्गिभयभीयहिययेणं अवगयतणप्पएसरुक्खो रुक्खो-हेसो दवग्गिसंताणकारणट्ठाए जेणेव मंडले तेणेव पहारेत्थ गमणाए। एक्को ताव एस गमो।
हे मेघ! तुम गजेन्द्र पर्याय में वर्त्त रहे थे कि अनुक्रम से कमलिनियों के वन का विनाश करने वाला, कुंद और लोध्र के पुष्पों की समृद्धि से सम्पन्न तथा अत्यन्त हिम वाला हेमन्त ऋतु व्यतीत हो गया और अभिनव ग्रीष्मकाल आ पहुँचा। उस समय तुम वनों में विचरण कर रहे थे। वहाँ क्रीड़ा करते समय वन की हथिनियाँ तुम्हारे ऊपर विविध प्रकार के कमलों एवं पुष्पों का प्रहार करती थीं। तुम उस ऋतु में उत्पन्न पुष्पों के बने चामर जैसे कर्ण के आभूषणों से मंडित और मनोहर थे। मद के कारण विकसित गंडस्थलों को आर्द्र करने वाले तथा झरते हुए सुगन्धित मदजल से तुम सुगन्धमय बन गये थे। हथिनियों से घिरे रहते थे। सब तरह से ऋतु सम्बन्धी शोभा उत्पन्न हुई थी। उस ग्रीष्मकाल में सूर्य की प्रखर किरणें पड़ रही थीं। उस ग्रीष्मऋतु ने श्रेष्ठ वृक्षों के शिखरों को अत्यन्त'शुष्क बना दिया था। वह बड़ा ही भयंकर प्रतीत होता था। शब्द करने वाले गार नामक पक्षी भयानक शब्द कर रहे थे। पत्र, काष्ठ, तृण और कचरे को उड़ाने वाले प्रतिकूल पवन से आकाशतल और वृक्षों का समूह व्याप्त हो गया था। वह बवण्डरों के कारण भयानक दीख पड़ता था। प्यास के कारण उत्पन्न वेदनादि दोषों से ग्रस्त हुए और इसी कारण इधर-उधर भटकते हुए श्वापदों (शिकारी जंगली पशुओं) से युक्त था। देखने में ऐसा भयानक ग्रीष्मऋतु, उत्पन्न हुए दावानल के कारण और अधिक दारुण हो गया।
वह दावानल वायु के संचार के कारण फैला हुआ और विकसित हुआ था। उसके शब्द का प्रकार अत्यधिक भयंकर था। वृक्षों से गिरने वाले मधु की धाराओं से सिञ्चित होने के कारण वह अत्यन्त वृद्धि को प्राप्त हुआ था, धधकने की ध्वनि से परिव्याप्त था। वह अत्यन्त चमकती हुई चिनगारियों से युक्त और धूम की कतार से व्याप्त था। सैकड़ों श्वापदों के प्राणों का अन्त करने वाला था। इस प्रकार तीव्रता को प्राप्त दावानल के कारण वह ग्रीष्मऋतु अत्यन्त भयङ्कर दिखाई देती थी।
हे मेघ! तुम उस दावानल की ज्वालाओं से आच्छादित हो गये, रुक गये-इच्छानुसार गमन करने में असमर्थ हो गये। धुएँ के कारण उत्पन्न हुए अन्धकार से भयभीत हो गये। अग्नि के ताप को देखने से तुम्हारे दोनों कान अरघट्ट के तुंब के समान स्तब्ध रह गये। तुम्हारी मोटी और बड़ी सूंड सिकुड़ गई। तुम्हारे चमकते हुए नेत्र भय के कारण इधर-उधर फिरने-देखने लगे। जैसे वायु के कारण महामेघ का विस्तार हो जाता है, उसी प्रकार वेग के कारण तुम्हारा स्वरूप विस्तृत दिखाई देने लगा। पहले दावानल के भय से भीतहृदय होकर दावानल से अपनी रक्षा करने के लिए, जिस दिशा में तृण के प्रदेश (मूल आदि) और वृक्ष आदि हटाकर सफाचट प्रदेश बनाया था और जिधर वह मंडल बनाया था, उधर ही जाने का तुमने विचार किया। वहीं जाने का निश्चय किया।
यह एक गम है; अर्थात् किसी-किसी आचार्य के मतानुसार इस प्रकार का पाठ है।
(दूसरा गम इस प्रकार है, अर्थात् अन्य आचार्य के मतानुसार पूर्वोक्त पाठ के स्थान पर यह पाठ है जो आगे दिया जा रहा है।)