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________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] [६१ कामभोग अर्थात् कामभोग के आधारभूत नर-नारियों के शरीर अशुचि हैं, अशाश्वत हैं, इनमें से वमन झरता है, पित्त झरता है, कफ झरता है, शुक्र झरता है तथा शोणित (रुधिर) झरता है। ये गंदे उच्छ्वास-निःश्वास वाले हैं, खराब मूत्र, मल और पीव से परिपूर्ण हैं, मल, मूत्र, कफ, नासिकामल, वमन, पित्त, शुक्र और शोणित से उत्पन्न होने वाले हैं। यह ध्रुव नहीं, नियत नहीं, शाश्वत नहीं हैं, सड़ने, पड़ने और विध्वंस होने के स्वभाव वाले हैं और पहले या पीछे अवश्य ही त्याग करने योग्य हैं। हे माता-पिता! कौन जानता है कि पहले कौन जायगा और पीछे कौन जायगा? अतएव हे माता-पिता! मैं यावत् अभी दीक्षा ग्रहण करना चाहता हूं।' १२५-तए णं तं मेहं कुमारं अम्मापियरो एवं वयासी-'इमे ते जाया! अजय-पजयपिउपजयागए सुबहु हिरन्ने य सुवने यकंसे य दूसे यमणिमोत्तिए य संख-सिल-प्पवाल-रत्तरयणसंतसारसावतिजे य अलाहि जाव आसत्तमाओ कुलवंसाओ पगामं दाउं, पगामं भोत्तुं, पगामं परिभाएउं, तं अणुहोहि ताव जाव जाया! विपुलं माणुस्सगं इड्डिसक्कारसमुदयं, तओ पच्छा अणुभूयकल्लाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए पव्वइस्ससि।' ___तत्पश्चात् माता-पिता ने मेघकुमार से इस प्रकार कहा-हे पुत्र! तुम्हारे पितामह, पिता के पितामह और पिता के प्रपितामह से आया हुआ यह बहुत-सा हिरण्य, सुवर्ण, कांसा, दूष्य, वस्त्र, मणि, मोती, शंख, सिला, मूंगा, लाल-रत्न आदि सारभूत द्रव्य विद्यमान है। यह इतना है कि सात पीढ़ियों तक भी समाप्त न हो। इसका तुम खूब दान करो, स्वयं भोग करो और बांटो। हे पुत्र! यह जितना मुनष्यसंबंधी ऋद्धि-सत्कार का समुदाय है, उतना सब तुम भोगो। उसके बाद अनुभूत-कल्याण होकर तुम श्रमण भगवान् महावीर के समक्ष दीक्षा ग्रहण कर लेना। १२६-तइणं से मेहे कुमारे अम्मापियरं एवं वयासी-'तहेवणं अम्मयाओ! जंणं तं वदह–'इमे ते जाया! अजग-पज्जग-पिउपज्जयागए जाव तओ पच्छा अणुभूयकल्लाणे पव्वइस्ससि' एवं खलु अम्मयाओ! हिरन्ने य सुवण्णे य जाव सावतेजे अग्गिसाहिए चोरसाहिए रायसाहिए दाइयसाहिए मच्चुसाहिए अग्गिसामन्ने जाव मच्चुसामन्ने सडण-पडण-विद्धंसणधम्मे पच्छा पुरं च णं अवस्सविप्पजहणिजे, सेकेणंजाणइ अम्मयाओ! के जाव गमणाए?तं इच्छामि णं जाव पव्वइत्तए।' तत्पश्चात् मेघकुमार ने माता-पिता से कहा-'हे माता-पिता! आप जो कहते हैं सो ठीक है कि'हे पुत्र! यह दादा, पड़दादा और पिता के पड़दादा से आया हुआ यावत् उत्तम द्रव्य है, इसे भोगो और फिर अनुभूत-कल्याण होकर दीक्षा ले लेना,-परन्तु हे माता-पिता! यह हिरण्य सुवर्ण यावत् स्वापतेय (द्रव्य) सब अग्निसाध्य है-इसे अग्नि भस्म कर सकती है, चोर चुरा सकता है, राजा अपहरण कर सकता है, हिस्सेदार बंटवारा कर सकते हैं और मृत्यु आने पर वह अपना नहीं रहता है। इसी प्रकार यह द्रव्य अग्नि के लिए समान हैं, अर्थात् जैसे द्रव्य उसके स्वामी का है, उसी प्रकार अग्नि का भी है और इसी तरह चोर, राजा, भागीदार और मृत्यु के लिए भी सामान्य है। यह सड़ने, पड़ने और विध्वस्त होने के स्वभाव वाला है। (मरण के) पश्चात् या पहले अवश्य त्याग करने योग्य है। हे माता-पिता! किसे ज्ञात है कि पहले कौन जायगा और पीछे कौन जायगा? अतएव मैं यावत् दीक्षा अंगीकार करना चाहता हूं।'
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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