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________________ [ ५९ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] अंसुधाराहिं सिंचमाणी पओहरे कलुणविमणदीना रोयमाणी कंदमाणी तिप्पमाणी सोयमाणी विलवाणी मेहं कुमारं एवं वयासी तत्पश्चात् वह धारिणी देवी, संभ्रम के साथ शीघ्रता से सुवर्णकलश के मुख से निकली हुई शीतल जल की निर्मल धारा से सिंचन की गई अर्थात् उस पर ठंडा जल छिड़का गया। अतएव उसका शरीर शीतल हो गया । उत्क्षेपक (एक प्रकार के बाँस के पंखे) से, तालवृन्त (ताड़ के पत्ते के पंखे) से तथा वीजनक (जिसकी डंडी अंदर से पकड़ी जाय, ऐसे बाँस के पंखे) से उत्पन्न हुई तथा जलकणों से युक्त वायु से अन्तः पुर परिजनों द्वारा उसे आश्वासन दिया गया। तब वह होश में आई । तब धारिणी देवी मोतियों की लड़ी के समान अश्रुधार से अपने स्तनों को सींचने भिगोने लगी। वह दयनीय, विमनस्क और दीन हो गई। वह रुदन करती हुई, क्रन्दन करती हुई पसीना एवं लार टपकाती हुई, हृदय में शोक करती हुई और विलाप करती हुई मेघकुमार से इस प्रकार कहने लगी १२१ - तुमं सिणं जाया! अम्हं एगे पुत्ते इट्ठे कंते पिए मणुन्ने मणामे थेज्जे वेसासिए सम्म बहुम अणुए भंडकरंडगसमाणे रयणे रयणभूए जीवियउस्सासए, हिययाणंदजणणे उंबरपुष्पं व दुल्लभे सवणयाए किमंग पुण पासणयाए ? णो खलु जाया! अम्हे इच्छामो खणमवि विप्पओगं सहित्तए । तं भुंजाहि ताव जाया ! विपुले माणुस्सए कामभोगे जाव ताव वयं जीवामो । तओ अच्छा अम्हेहिं कालगएहिं परिणयवए वड्डिय-कुलवंस-तंतु-कज्जम्मि निरावयक्खे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइस्ससि । हे पुत्र ! तू हमारा इकलौता बेटा है। तू हमें इष्ट है, कान्त है, प्रिय है, मनोज्ञ है, मणाम है तथा धैर्य और विश्राम का स्थान है। कार्य करने में सम्मत ( माना हुआ) है, बहुत कार्य करने में बहुत माना हुआ है और कार्य करने के पश्चात् भी अनुमत है । आभूषणों की पेटी के समान (रक्षण करने योग्य) है। मनुष्यजाति में उत्तम होने के कारण रत्न है । रत्न रूप है। जीवन के उच्छ्वास के समान है। हमारे हृदय में आनन्द उत्पन्न करने वाला है। गूलर के फूल के समान तेरा नाम श्रवण करना भी दुर्लभ है तो फिर दर्शन की तो बात ही क्या है। हे पुत्र ! हम क्षण भर के लिए भी तेरा वियोग नहीं सहन करना चाहते। अतएव हे पुत्र ! प्रथम तो जब तक हम जीवित हैं, तब तक मनुष्य संबंधी विपुल काम - भोगों को भोग । फिर जब हम लगत हो जाएँ और तू परिपक्व उम्र का हो जाय - तेरी युवावस्था पूर्ण हो जाय, कुल-वंश (पुत्र-पौत्र आदि) रूप तंतु का कार्य वृद्धि को प्राप्त हो जाय, जब सांसारिक कार्य की अपेक्षा न रहे, उस समय तू श्रमण भगवान् महावीर के पास मुण्डित होकर, गृहस्थी का त्याग करके प्रव्रज्या अंगीकार कर लेना । १२२ - तए णं से मेहे कुमारे अम्मापिऊहिं एवं वुत्ते समाणे अम्मापियरं एवं वयासी'तहेव णं तं अम्मयाओ! जहेव णं तुम्हे ममं एवं वदह - तुमं सि णं जाया! अम्हं एगे पुत्ते, तं चेव जाव निरावयक्खे समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव पव्वइस्ससि– एवं खलु अम्मयाओ माणुस भवे अधुवे अणियए असासए वसणसउवद्दवाभिभूते विज्जुलयाचंचले अणिच्चे जलबुब्बुयसमाणे कुसग्गजलबिन्दुसन्निभे संझब्भराग - सरिसे सुविणदंसणोवमे सडण-पडण
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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