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________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात] [५७ का परिचय देते हैं जो उनके जीवन में निरन्तर परिव्याप्त रहता था। एक राजकुमार और वह भी मगध का राजकुमार शिष्यत्व अंगीकार करने को लालायित है, इससे भी भगवान् का समभाव अखंडित ही रहता है। गुरु के लिए शिष्य बनाने का प्रयोजन क्या है ? शिष्य बनाने से गुरु की एकान्त और एकाग्र साधना में कुछ न कुछ व्याघात भी उत्पन्न हो सकता है, फिर भी साधु दो कारणों से किसी व्यक्ति को शिष्य रूप में दीक्षित और स्वीकृत करते हैं (१) साधु विचार करता है कि यह भव्य आत्मा संसार-सागर से तिरने का अभिलाषी है। इसे पथप्रदर्शन की आवश्यकता है। पथप्रदर्शन के विना बेचारा भटक जाएगा। इस प्रकार के विचार से करुणापूर्वक अपनी साधना में विक्षेप सहन करके भी उसे शिष्य रूप में ग्रहण कर लेते हैं। (२) दूसरा कारण है शासन की निरन्तर प्रवृत्ति। गुरु-शिष्य की परम्परा चालू रहने से भगवान् का शासन चिरकाल तक चालू रहता है, इस परम्परा के विना शासन चालू नहीं रह सकता। यही कारण है कि भगवान् ने प्रथम तो 'जहासुहं देवाणुप्पिया' कहकर मेघकुमार की इच्छा पर ही दीक्षित होना छोड़ दिया, फिर 'मा पडिबंधं करेह' कह कर दीक्षित होने के लिए हल्का संकेत भी कर दिया। माता पिता के समक्ष संकल्पनिवेदन ११६-तए णं से मेहे कुमारे समणं भगवं महावीरं वंदति, नमंसति, वंदित्ता नमंसित्ता जेणामेव चाउग्घंटेआसरहे तेणामेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता चाउग्घंटं आसरहं दुरूहइ, दुरूहित्ता महया भडचडगरपहकरेणं रायगिहस्स नगरस्समझमझेणंजेणेव सए भवणे तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चाउग्घंटाओ आसरहाओ पच्चोरुहइ। पच्चोरुहित्ता जेणामेव अम्मापियरो तेणामेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता अम्मापिऊणं पायवडणं करेइ। करित्ता एवं वयासी-'एवं खलु अम्मयाओ! मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मे णिसंते, से वि य मे धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए।' ___तत्पश्चात् मेघकुमार ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन किया, अर्थात् उनकी स्तुति की, नमस्कार किया, स्तुति-नमस्कार करके जहाँ चार घंटाओं वाला अश्वरथ था, वहां आया। आकर चार घंटाओं वाले अश्वरथ पर आरूढ हुआ। आरूढ होकर महान् सुभटों और बड़े समूह वाले परिवार के साथ राजगृह के बीचों-बीच होकर अपने घर आया। चार घंटाओं वाले अश्व-रथ से उतरा। उतरकर जहाँ उसके माता-पिता थे, वहीं पहुंचा। पहुंचकर माता-पिता के पैरों में प्रणाम किया। प्रणाम करके उसने इस प्रकार कहा-'हे माता-पिता! मैंने श्रमण भगवान् महावीर के समीप धर्म श्रवण किया है और मैंने उस धर्म की इच्छा की है, बार-बार इच्छा की है। वह मुझे रुचा है।' ११७-तएणं तस्स मेहस्स अम्मापियरो एवं वयासी-'धन्नो सि तुमं जाया! संपुनो सि तुमं जाया! कयत्थो सि तुमं जाया! जंणं तुमे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मे णिसंते, से वि य ते धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए।' तब मेघकुमार के माता-पिता इस प्रकार बोले-'पुत्र! तुम धन्य हो, पुत्र! तुम पूरे पुण्यवान् हो, हे पुत्र! तुम कृतार्थ हो कि तुमने श्रमण भगवान् महावीर के निकट धर्म श्रवण किया है और वह धर्म तुम्हें इष्ट, पुनः पुन: इष्ट और रुचिकर भी हुआ है।'
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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