________________
८०]
[ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध को कांटों की शाखाओं (डालियों) से ढक कर स्वयं उसमें आग लगा कर जला देता है, दूसरों से जलवा देता है या जो उनमें आग लगा कर जला देने वाले को अच्छा समझता है। इस प्रकार के महापाप के कारण वह स्वयं को महापापी के नाम से विख्यात कर देता है ।
(५) कोई (अत्यन्त उग्र) व्यक्ति किसी भी प्रतिकूल शब्दादि के कारण, अथवा गृहपति द्वारा खराब, तुच्छ या अल्प अन्न आदि दिये जाने से अथवा उससे अपने किसी मनोरथ की सिद्धि न होने से उस पर क्रुद्ध होकर उस के या उसके पुत्रों के कुण्डल, मणि या मोती को स्वयं हरण करता है, दूसरे से हरण कराता है, या हरण करनेवाले को अच्छा जानता है।
इस प्रकार महापाप के कारण जगत् में वह महापापी के रूप में स्वयं को प्रसिद्ध कर देता है।
(६) कोई (द्वेषी) पुरुष श्रमणों या माहनों के किसी भक्त से सड़ा-गला, तुच्छ या घटिया या थोड़ा सा अन्न पाकर अथवा मद्य को हंडिया न मिलने से या किसी अभीष्ट स्वार्थ के सिद्ध न होने से अथवा किसी भी प्रतिकूल शब्दादि के कारण उन श्रमणों या माहनों के विरुद्ध (शत्रु) होकर उनका छत्र, दण्ड, उपकरण, पात्र, लाठी, आसन, वस्त्र, पर्दा (चिलिमिली या मच्छरदानी), चर्म, चर्म-छेदनक (चाकू) या चर्मकोश (चमड़े की थैली) स्वयं हरण कर लेता है, दूसरे से हरण करा लेता है, अथवा हरण करने वाले को अच्छा जानता है । इस प्रकार (अपहरण रूप) महापाप के कारण वह स्वयं को महापापी के रूप में प्रसिद्ध कर देता है।
(७) कोई-कोई व्यक्ति तो (अपने कुकृत्य के इहलौकिक पारलौकिक फल का) जरा भी विचार नहीं करता, जैसे कि वह अकारण ही गृहपति या उनके पुत्रों के अन्न आदि को स्वयमेव आग लगा कर भस्म कर देता है, अथवा वह दूसरे से आग लगवा कर भस्म करा देता है, या जो नाग लगा कर भस्म करता है, उसे अच्छा समझता है। इस प्रकार महापापकर्म उपार्जन करने के कारण जगत् में वह महापापी के रूप में बदनाम हो जाता है।
(८) कोई-कोई व्यक्ति अपने कृत दुष्कर्मों के फल का किंचित् भी विचार नहीं करता, जैसे कि-वह अकारण ही किसी गृहस्थ या उसके पुत्रों के ऊंट, गाय, घोड़ों या गधों के जंघादि अंग स्वयं काट डालता है, या दूसरे से कटवाता है, अथवा जो उनके अंग काटता है, उसकी प्रशंसा एवं अनुमोदना करता है । अपनी इस पापवृत्ति के कारण वह महापापी के नाम से जगत् में पहिचाना जाता है।
(8) कोई व्यक्ति ऐसा होता है, जो स्वकृतकों के परिणाम का थोड़ा-सा विचार नहीं करता, जैसे कि वह (किसी कारण के बिना ही अपनी दुष्टप्रकृतिवश) किसी गृहस्थ या उनके पुत्रों की उष्ट्रशाला, गोशाला, घुड़साल या गर्दभशाला को सहसा कंटीली झाड़ियों या डालियों से ढंक कर स्वयं आग लगाकर उन्हें भस्म कर डालता है, अथवा दूसरे को प्रेरित करके भस्म करवा को डालता है, या जो उनकी उक्त शालाओं को इस प्रकार आग लगा कर भस्म करता है, उसको अच्छा समझता है।
(१०) कोई व्यक्ति पापकर्म करता हुआ उसके फल का विचार नहीं करता। वह अकारण ही गृहपति या गृहपतिपुत्रों के कुण्डल, मणि, या मोती आदि को स्वयं चुरा लेता है, या दूसरों से चोरी करवाता है, अथवा जो चोरी करता है, उसे अच्छा समझता है ।