SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्रियास्थान : द्वितीय अध्ययन सूत्र ७०६ ] [ ६७ प्रज्जावेतम्वो भन्ने प्रज्जावेयव्वा, अहं ण परिघेत्तव्यो भन्ने परिघेत्तवा, अहं ण परितावेयव्वो अन्ने परितावेयव्वा, अहं ण उद्दवेयव्वो अन्ने उद्दवेयव्वा, एवामेव ते इत्थिकामेहि मुच्छिया गिद्धा गढिता गरहिता अझोववण्णा जाव वासाइं चउपंचमाइं छद्दसमाइं अप्पयरो वा भुज्जयरो वा भुजित्तु भोगभोगाइं कालमासे कालं किच्चा प्रनतरेसु प्रासुरिएसु किबिसिएसु ठाणेसु उववत्तारो भवंति, ततो विप्पमुच्चमाणा भुज्जो भुज्जो एलमूयत्ताए तमूयत्ताए जाइयत्ताए पच्चायंति, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जे त्ति पाहिज्जति, दुवालसमे किरियाठाणे लोभवत्तिए ति माहिते। इच्चेताई दुवालस किरियाठाणाई दविएणं समणेणं वा महाणेणं वा सम्मं सुपरिजाणियव्वाई' भवति । ७०६-इसके पश्चात् बारहवाँ क्रियास्थान है, जिसे लोभप्रत्ययिक कहा जाता है। वह इस प्रकार है-ये जो वन में निवास करने वाले (आरण्यक) हैं, जो कुटी बना कर रहते (आवसथिक) हैं, जो ग्राम के निकट डेरा डाल कर (ग्राम के आश्रय से अपना निर्वाह करने हेतु) रहते (ग्रामान्तिक) हैं, कई (गफा, वन आदि) एकान्त (स्थानों) में निवास करते हैं, अथवा कोई रहस्यमयी गप्त क्रिया करते (राहस्यिक) हैं। ये आरण्यक आदि न तो सर्वथा संयत (सर्वसावद्य अनुष्ठानों से निवत्त) हैं और न ही (प्राणातिपातादि समस्त आश्रवों से) विरत हैं, वे समस्त प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों की हिंसा से स्वयं विरत नहीं हैं । वे (आरण्यकादि) स्वयं कुछ सत्य और कुछ मिथ्या (सत्यमिथ्या) (अथवा सत्य होते हए भी जीवहिंसात्मक होने से मषाभूत) वाक्यों का प्रयोग करते हैं जैसे कि मैं (ब्राह्मण होने से) मारे जाने योग्य नहीं हूं, अन्य लोग (शूद्र होने से) मारे जाने योग्य (मारे जा सकते) हैं, मैं (वर्गों में उत्तम ब्राह्मणवर्णीय होने से) आज्ञा देने (प्राज्ञा में चलाने) योग्य नहीं हूं, किन्तु दूसरे (शूद्रादिवर्गीय) आज्ञा देने योग्य हैं, मैं (दास-दासी आदि के रूप में खरीद कर) परिग्रहण या निग्रह करने योग्य, नहीं हूं, दूसरे (शूद्रादिवर्णीय) परिग्रह या निग्रह करने योग्य हैं, मैं संताप देने योग्य नहीं हूं, किन्तु अन्य जीव सन्ताप देने योग्य हैं, मैं उद्विग्न करने या जीवरहित करने योग्य नहीं हूं दूसरे प्राणी उद्विग्न, भयभीत या जीवरहित करने योग्य हैं।' इस प्रकार परमार्थ से अनभिज्ञ वे अन्यतीथिक स्त्रियों और शब्दादि कामभोगों में आसक्त (मूच्छित), गृद्ध (विषयलोलुप) सतत विषयभोगों में ग्रस्त, गहित एवं लीन रहते हैं। वे चार, पाँच, छह या दस वर्ष तक थोड़े या अधिक काम-भोगों का उपभोग करके मृत्यु के समय मृत्यु पा कर असुरलोक में किल्विषी असुर के रूप में उत्पन्न होते हैं । उस आसुरी योनि से (आयुक्षय होने से) विमुक्त होने पर (मनुष्यभव में भी) बकरे की तरह मूक, जन्मान्ध (द्रव्य से अन्ध एवं भाव से अज्ञानान्ध) एवं जन्म से मूक होते हैं । इस प्रकार विषय-लोलुपता की क्रिया के कारण लोभप्रत्ययिक पाप (सावद्य) कर्म का बन्ध होता है। इसीलिए बारहवें क्रियास्थान को लोभप्रत्ययिक कहा गया है। इन पूर्वोक्त बारह क्रियास्थानों (के स्वरूप) को मुक्तिगमनयोग्य (द्रव्य-भव्य) श्रमण या माहन को सम्यक् प्रकार से जान लेना चाहिए, और तत्पश्चात् इनका त्याग करना चाहिए। १. पाठान्तर-'सुपरिजाणियव्वाइं' के बदले चूर्णिसम्मत पाठान्तर है 'सुपडिलेहियव्वाणि'-अर्थ होता है-'इनके हेयत्व, ज्ञेयत्व, उपादेयत्व का सम्यक प्रतिलेखन-समीक्षापूर्वक विचार कर लेना चाहिए।'
SR No.003439
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages282
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy