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[ सूत्रकृतांगसूत्र - द्वितीय श्र तस्कन्ध
ही ये वनस्पतियाँ उसके शरीर की रक्षा के लिए कुछ काम आती हैं, तथापि वह अज्ञ निरर्थक ही उनका हनन, छेदन, भेदन, खण्डन, मर्दन, उत्पीड़न, करता है, उन्हें भय उत्पन्न करता है, या जीवन से रहित कर देता है । विवेक को तिलांजलि दे कर वह मूढ़ व्यर्थ ही ( वनस्पतिकायिक) प्राणियों को दण्ड देता है और (जन्मजन्मान्तर तक ) उन प्राणियों के साथ वैर का भागी बन जाता है ।
(३) जैसे कोई पुरुष (सद - सद्विवेकविकल हो कर ) नदी के कच्छ ( किनारे) पर, द्रह ( तालाब या भील) पर, या किसी जलाशय में, अथवा तृणराशि पर, तथा नदी आदि द्वारा घिरे हुए स्थान में, अन्धकारपूर्ण स्थान में अथवा किसी गहन - दुष्प्रवेशस्थान में, वन में या घोर वन में, पर्वत पर या पर्वत के किसी दुर्गम स्थान में तृण या घास को बिछा बिछा या फैला फैला कर अथवा ऊंचा ढेर करके, स्वयं उसमें आग लगाता ( जला कर डालता है, अथवा दूसरे से आग लगवाता है, अथवा इन स्थानों पर प्राग लगाते ( या जलाते ) हुए अन्य व्यक्ति का अनुमोदन - समर्थन करता है, वह पुरुष निष्प्रयोजन प्राणियों को दण्ड देता है । इस प्रकार उस पुरुष को व्यर्थ ही ( अग्निकायिक तथा तदाश्रित अन्य त्रसादि) प्राणियों के घात के कारण सावद्य (पाप) कर्म का बन्ध होता है ।
यह दूसरा अनर्थदण्डप्रत्ययिक क्रियास्थान कहा गया है ।
विवेचन - द्वितीय क्रियास्थान अनर्थदण्डप्रत्ययिक : स्वरूप और विश्लेषण - प्रस्तुत सूत्र में शास्त्रकार निरर्थक प्राणिघातजनित क्रियास्थान का विभिन्न पहलुओं से निरूपण करते हैं । वे पहलू ये हैं
(१) वह द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के त्रस प्राणियों की निरर्थक ही विविध प्रकार से प्राणहिंसा करता, करवाता व अनुमोदन करता है, ( २ ) वह स्थावरजीवों की — विशेषतः वनस्पतिकायिक एवं अग्निकायिक जीवों की निरर्थक ही विविध प्रकार से पर्वतादि विविध स्थानों में, छेदन - भेदनादि रूप में हिंसा करता, करवाता व अनुमोदन करता है,
(३) वह शरीरसज्जा, चमड़े, मांसादि के लिए हिंसा नहीं करता,
( ४ ) किसी प्राणी द्वारा मारने की आशंका से उसका वध नहीं करता,
(५) वह पुत्र, पशु, गृह आदि के संवद्ध नार्थ हिंसा नहीं करता, किन्तु किसी भी प्रयोजन के बिना निरर्थक स जीवों का घात करता है ।
अर्थदण्डप्रत्ययिक क्रियास्थान- किसी भी प्रयोजन के बिना केवल प्रादत, कौतुक, कुतूहल मनोरंजन आदि से प्रेरित होकर किसी भी त्रस या स्थावर जीव की किसी भी रूप में की जाने वाली हिंसा (दण्ड) के निमित्त से जो पाप कर्मबन्ध होता है, उसे अनर्थदण्ड - प्रत्ययिक क्रियास्थान कहते हैं । भगवान् महावीर की दृष्टि में अर्थदण्ड- प्रत्ययिक की अपेक्षा अनर्थदण्ड - प्रत्ययिक क्रियास्थान अधिक पापकर्मबन्धक है । "
तृतीय क्रियास्थान - हिंसादण्डप्रत्ययिक : स्वरूप और विश्लेवरण
६६७ - ग्रहावरे तच्चे दंडसमादाणे हिंसादंडवत्तिए ति श्राहिज्जति । से जहाणामए केइ
१. सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति, पत्रांक ३०७ का सारांश