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________________ किरियाठाणं : बीयं अज्झयणं क्रियास्थान : द्वितीय अध्ययन संसार के समस्त जीव तेरह क्रियास्थानों में ६९४-सुतं मे पाउसंतेणं भगवता एवमक्खातं इह खलु किरियाठाणे णाम अझयणे, तस्स णं अयम?-इह खलु संजूहेणं दुवे ठाणा एवपाहिज्जंति, तंजहा-धम्मे चेव अधम्मे चेव, उवसंते चेव अणुवसन्ते चेव । तत्थ णं जे से पढमस्स ठाणस्स अधम्मपक्खस्स विभंगे तस्स णं अयम8-इह खलु पाईणं वा ४ संतेगइया मणुस्सा भवंति, तंजहा-प्रारिया वेगे, प्रणारिया वेगे, उच्चागोता वेगे णीयागोता वेगे, कायमंता वेगे, ह्रस्समंता वेगे, सुवण्णा वेगे, दुवण्णा वेगे, सुरूवा वेगे दुरूवा वेगे। तेसि च णं इमं एतारूवं दंडसमादाणं संपेहाए, तंजहा-णेरइएसु तिरिक्खजोणिएसु माणुसेसु देवेसु जे यावन्ने तहप्पगारा पाणा विण्णू वेयणं वेदेति तेसि पि य णं इमाइं तेरस किरियाठाणाई भवंतीति अक्खाताई,' तंजहा-अट्ठादंडे १ अणट्ठादंडे २ हिंसादंडे ३ अकम्हादंडे ४ दिद्धिविपरियासियादंडे ५ मोसवत्तिए ६ प्रदिन्नादाणवत्तिए ७ अज्झत्थिए ८ माणवत्तिए ६ मित्तदोसवत्तिए १० मायावत्तिए ११ लोभवत्तिए १२ इरियावहिए १३ । ... ६६४-हे आयुष्मन् ! मैंने सुना है, उन आयुष्मान् श्रमण भगवान् महावीर ने इस प्रकार कहा था "इस (जनशासन या निर्ग्रन्थ प्रवचन) में 'क्रियास्थान' नामक अध्ययन कहा गया है, उसका अर्थ यह है-इस लोक में सामान्य रूप से (या संक्षेप में) दो स्थान इस प्रकार बताये जाते हैं, एक धर्म-स्थान और दूसरा अधर्मस्थान, अथवा एक उपशान्त स्थान और दूसरा अनुपशान्त स्थान । इन दोनों स्थानों में से प्रथम अधर्मपक्ष का जो विभंग (विकल्प) है उसका अर्थ (अभिप्राय) इस प्रकार कहा गया' है-' इस लोक में पूर्व आदि छहों दिशाओं में अनेकविध मनुष्य रहते हैं, जैसे कि कई आर्य होते हैं, कई अनार्य, अथवा कई उच्चगोत्रीय होते हैं, कई नीचगोत्रीय अथवा कई लम्बे कद के और कई ठिगने (छोटे) कद के या कई उत्कृष्ट वर्ण के और कई निकृष्ट वर्ण के अथवा कई सुरूप और कई कुरूप होते हैं। उन आर्य आदि मनुष्यों में यह (आगे कहे जाने वाला) दण्ड (हिंसादिपापोपादान संकल्प) का समादान–ग्रहण देखा जाता है, जैसे कि-नारकों में, तिर्यञ्चों में, मनुष्यों में और देवों में, अथवा जो १. तुलना-इमाई तेरस किरियाठाणाई'..... ते अड्डे अणटठाडंडे ......"ईरियावहिए। -आवश्यक चूणि, प्रतिक्रमणाध्ययन पृ. १२७
SR No.003439
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages282
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size20 MB
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