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________________ ५० ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध (६) निम्नोक्त गुणों के कारण भिक्षु महान् कर्मबन्धन से दूर (उपशान्त) शुद्धसंयम में उद्यत एवं पापकर्मों से निवृत्त होता है (अ) पंचेन्द्रियविषयों में अनासक्त होने से । (प्रा) अठारह ही पापस्थानों से विरत होने से । (इ) त्रस-स्थावरप्राणियों के प्रारभ्भ का कृत-कारित-अनुमोदित रूप से त्याग करने से । (ई) सचित्त-अचित्त काम-भोगों के परिग्रह का कृत-कारित-अनुमोदित रूप से त्याग करने से। (उ) साम्परायिक कर्मबन्ध का कृत-कारित-अनुमोदित रूप से त्याग करने से । (ऊ) वह षट्कायिक जीव समारम्भजनित उद्गमादि दोषयुक्त आहार ग्रहण न करे, कदाचित् भूल से ग्रहण कर लिया गया हो तो उसका सेवन स्वयं न करने, न कराने, और सेवनकर्ता को अच्छा न समझने पर। (७) यदि यह ज्ञात हो जाए कि साधु के निमित्त से नहीं, अपितु किसी दूसरे के निमित्त से; अन्यप्रयोजनवश गृहस्थ ने आहार बनाया है, और वह आहार उद्गम, उत्पादना और एषणादि दोषों से रहित, शुद्ध, शस्त्रपरिणत, प्रासुक, हिंसादि दोषरहित, साधु के वेष, वृत्ति, कल्प तथा कारण की दृष्टि से ग्राह्य है तो वह भिक्षु उसे प्रमाणोपेत ग्रहण करे और गाड़ी की धुरी में तेल या घाव पर लेप के समान उसे साँप के द्वारा बिल-प्रवेश की तरह अस्वादवृत्ति से सेवन करे। (८) वह भिक्षु आहार, वस्त्रादि उपधि, वसति, शयन, स्वाध्याय, ध्यान आदि प्रत्येक वस्तु की मात्रा, कालमर्यादा और विधि का ज्ञाता होता है और तदनुरूप ही आहारादि का उपयोग करता है। (8) धर्मोपदेश देते समय निम्नलिखित विवेक का आश्रय ले (अ) वह जहाँ कहीं भी विचरण करे, सुनने के लिए धर्म में तत्पर या अतत्पर, श्रोताओं को शुद्ध धर्म का तथा उसके फल आदि का स्व-पर-हितार्थ ही कथन करे । (आ) वह भिक्षु शान्ति, विरति, उपशम, निर्वाण, शौच, आर्जव, मार्दव, लाघव, समस्त प्राणियों के प्रति अहिंसा आदि धर्मों का प्राणिहितानुरूप विशिष्ट चिन्तन करके उपदेश दे । (इ) वह साधु अन्न, पान, वस्त्र, आवासस्थान, शयन, तथा अन्य अनेकविध काम-भोगों की प्राप्ति के हेतु धर्मोपदेश न करे। (ई) प्रसन्नतापूर्वक एकमात्र कर्मनिर्जरा के उद्देश्य से धर्मोपदेश करे । (१०) जो पूर्वोक्त विशिष्ट गुणसम्पन्न भिक्षु से धर्म सुन-समझ कर श्रमणधर्म में प्रवजित होकर इस धर्म के पालन हेतु उद्यत हुए हैं, वे वीरपुरुष सर्वोपगत, सर्वोपरत, सर्वोपशान्त एवं सर्वतः परिनिर्वृत्त होते हैं। १. सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति-पत्रांक २९८ से ३०२ तक का सारांश
SR No.003439
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages282
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size20 MB
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