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________________ पौण्डरीक : प्रथम अध्ययन : सूत्र ६६६ ] [ ३३ ६६५–अतः मैं (नियतिवादी) कहता हूं कि पूर्व आदि दिशाओं में रहने वाले जो त्रस एवं स्थावर प्राणी हैं, वे सब नियति के प्रभाव से ही औदारिक आदि शरीर की रचना (संघात) को प्राप्त करते हैं, वे नियति के कारण ही बाल्य, युवा और वृद्ध अवस्था (पर्याय) को प्राप्त करते हैं, वे नियतिवशात् ही शरीर से पृथक् (मृत) होते हैं, वे नियति के कारण ही काना, कुबड़ा आदि नाना प्रकार की दशाओं को प्राप्त करते हैं, नियति का आश्रय लेकर ही नाना प्रकार के सुख-दुःखों को प्राप्त करते हैं।" (श्री सुधर्मास्वामी श्री जम्बूस्वामी से कहते हैं-) इस प्रकार नियति को ही समस्त अच्छेबुरे कार्यों का कारण मानने की कल्पना (उत्प्रेक्षा) करके (निःसंकोच एवं कर्मफल प्राप्ति से निश्चिन्त होने से) नियतिवादी आगे कही जाने वाली बातों को नहीं मानते-क्रिया, प्रक्रिया से लेकर प्रथम सूत्रोक्त नरक और नरक से अतिरिक्त गति तक के पदार्थ । इस प्रकार वे नियतिवाद के चक्र में पड़े हुए लोग नाना प्रकार के सावद्यकर्मों का अनुष्ठान करके काम-भोगों का उपभोग करते हैं, इसी कारण (नियतिवाद में श्रद्धा रखने वाले) वे (नियतिवादी) अनार्य हैं, वे भ्रम में पड़े हैं । वे न तो इस लोक के होते हैं और न परलोक के, अपितु काम-भोगों में फंस कर कष्ट भोगते हैं। यह चतुर्थपुरुष नियतिवादी कहलाता है । ६६६-इच्चेते चत्तारि पुरिसजाता णाणापन्ना णाणाछंदा गाणासीला जाणादिट्ठी णाणारई णाणारंभा णाणज्झवसाणसंजुत्ता पहीणपुव्वसंजोगा प्रारियं मग्गं प्रसंपत्ता, इति ते णो हवाए णो पाराए, अंतरा कामभोगेसु विसण्णा । ६६६-इस प्रकार ये पूर्वोक्त चार पुरुष भिन्न-भिन्न बुद्धि वाले, विभिन्न अभिप्राय वाले, विभिन्न शील (आचार) वाले, पृथक् पृथक् दृष्टि (दर्शन) वाले, नाना रुचि वाले, अलग-अलग आरम्भ धर्मानुष्ठान वाले तथा विभिन्न अध्यवसाय (पुरुषार्थ) वाले हैं। इन्होंने माता-पिता आदि गृहस्थाश्रमीय पूर्वसंयोगों को तो छोड़ दिया, किन्तु आर्यमार्ग (मोक्षपथ) को अभी तक पाया नहीं है । इस कारण वे न तो इस लोक के रहते हैं और न ही परलोक के होते हैं, किन्तु बीच में ही (सांसारिक) काम-भोगों में ग्रस्त होकर कष्ट पाते हैं। विवेचन–चतुर्थ पुरुषः नियतिवादी-स्वरूप प्रौर विश्लेषण प्रस्तुत चार सूत्रों में से प्रथम तीन सूत्रों में चतुर्थ पुरुष नियतिवादी के सम्बन्ध में कुछ तथ्यों का तथा चतुर्थ सूत्र में पूर्वोक्त चारों पुरुषों द्वारा आर्यमार्ग पाने में असफलता का निरूपण है। नियतिवाद के सम्बन्ध में यहाँ निम्नोक्त तथ्य प्रतिफलित होते हैं(१) नियतिवाद के प्ररूपक और उनके अनुगामी। (२) क्रियावादी और प्रक्रियावादी दोनों ही नियति के प्रभाव में। (३) एकान्त-नियतिवादविरोधी सुखदुःखादि स्व-स्वकृतकर्मफलानुसार मानते हैं। (४) नियतिवादी सुखदुःखादि को स्वकृतकर्मफल न समझ कर नियतिकृत मानते हैं। (५) नियति के प्रभाव से शरीर-रचना, बाल्य, युवा आदि अवस्थाएँ या विविध विरूपताएं प्राप्त होती हैं।
SR No.003439
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages282
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size20 MB
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