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________________ ३० ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध ६६१-जं पि य इमं समणाणं णिग्गंथाणं उद्दिळं वियंनियं दुवालसंगं गणिपिडगं, तं जहाआयारो जाव दिटुिवातो, सव्वमेयं मिच्छा, ण एतं तहितं, ण एवं पाहत्तहितं । इमं सच्च, इमं तहितं, इमं आहतहितं, ते एवं सणं कुव्वंति, ते एवं सण्णं संठवेति, ते एवं सणं सोवटुवयंति, तमेवं ते तज्जातियं दुक्खं णातिउटति सउणी पंजरं जहा। ६६१-यह जो श्रमणों-निर्ग्रन्थों द्वारा कहा हुआ, रचा हुआ या प्रकट किया हुआ द्वादशाङ्ग गणिपिटक (आचार्यों का या गणधरों का ज्ञानपिटारा–ज्ञानभण्डार) है, जैसे किआचारांग, सत्रकृतांग से लेकर दष्टिवाद तक, यह सब मिथ्या है, यह तथ्य (सत्य) नहीं है और न ही यह यथातथ्य (यथार्थ वस्तुस्वरूप का बोधक) है, (क्योंकि यह सब ईश्वरप्रणीत नहीं है), यह जो हमारा (ईश्वरकर्तृत्ववाद या आत्माद्वैतवाद है) यह सत्य है, यह तथ्य है, यह यथातथ्य (यथार्थ रूप से वस्तुरूप प्रकाश) है। इस प्रकार वे (ईश्वरकारणवादी या आत्माद्वतवादी) ऐसी संज्ञा (मान्यता या विचारधारा) रखते, (या निश्चत करते) हैं; वे अपने शिष्यों के समक्ष भी इसी मान्यता को स्थापना करते हैं, वे सभा में भी वे इसी मान्यता से सम्बन्धित युक्तियाँ मताग्रहपूर्वक उपस्थित (प्रस्तुत) करते हैं । जैसे पक्षी पिंजरे को नहीं तोड़ सकता वैसे ही वे (पूर्वोक्तवादी) अपने ईश्वरकर्तृत्ववाद या आत्माद्व तवाद को अत्यन्ताग्रह के कारण नहीं छोड़ सकते, अतः इस मत के स्वीकार करने से उत्पन्न (तज्जातीय) दुःख (दुःख के कारणभूत कर्मसमूह) को नहीं तोड़ सकते। ६६२–ते णो [एतं] विप्पडिवेदेति तं जहा-किरिया इ वा जाव अणिरए ति वा । एवामेव ते विरूवरूवेहि कम्मसमारंभेहि विरूवरूवाइं कामभोगाई समारंभित्ता भोयणाए एवामेव ते प्रणारिया विप्पडिवण्णा, तं सद्दहमाणा जाव इति ते णो हव्वाए णो पाराए, अंतरा कामभोगेसु विसण्णा। . तच्चे पुरिसज्जाते इस्सरकारणिए त्ति प्राहिते। ६६२–वे (ईश्वरकारणवादी या आत्माद्वैतवादो स्वमताग्रहग्रस्त होने से) इन (आगे कहे जाने वाली) बातों को नहीं मानते जैसे कि-पूर्वसूत्रोक्त' क्रिया से लेकर अनिरय (नरक से अतिरिक्त गति) तक हैं । वे नाना प्रकार के पापकर्मयुक्त (सावद्य) अनुष्ठानों के द्वारा कामभोगों के उपभोग के लिए अनेक प्रकार के कामभोगों का आरम्भ करते हैं । वे अनार्य (आर्यधर्म से दूर) हैं, वे विपरीत मार्ग को स्वीकार किये हुए हैं, अथवा भ्रम में पड़े हुए हैं । इस प्रकार के ईश्वरकर्तृत्ववाद में श्रद्धाप्रतीति रखने वाले वे धर्मश्रद्धालु राजा आदि उन मतप्ररूपक साधकों की पूजा-भक्ति करते हैं, इत्यादि पूर्वोक्त वर्णन के अनुसार वे ईश्वरकारणवादी न तो इस लोक के होते हैं न परलोक के। उभयभ्रष्ट लोग बीच में ही कामभोगों में फंस कर दुःख पाते हैं। यह तीसरे ईश्वरकारणवादी का स्वरूप कहा गया है । विवेचन-ईश्वरकारणवादी तृतीयपुरुष : स्वरूप और विश्लेषण प्रस्तुत चार सूत्रों (सूत्र संख्या ६५६ से ६६२ तक) में ईश्वरकारणवाद तथा आत्माद्वैतवाद का स्वरूप, प्रतिपक्ष पर आक्षेप एवं दुष्परिणाम पर शास्त्रकार ने विभिन्न पहलुओं से प्रतिपादन किया है। १ देखिए सूत्र ६५५ और उसका अर्थ
SR No.003439
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages282
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size20 MB
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