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[ सूत्रकृतांगसूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
६५५ - इह खलु पंच महब्भूता जेहि नो कज्जति किरिया ति वा किरिया ति वा सुकडे ि वादुक्कडे ति वा कल्लाणे ति वा पावए ति वा साहू ति वा प्रसाहू ति वा सिद्धी ति वा प्रसिद्धी तिवा णिरए ति वा प्रणिरए ति वा अवि यंतसो तणमातमवि ।
६५५ - इस जगत् में पंचमहाभूत ही सब कुछ हैं। जिन से हमारी क्रिया या प्रक्रिया, सुकृत अथवा दुष्कृत, कल्याण या पाप, अच्छा या बुरा, सिद्धि या प्रसिद्धि, नरकगति या नरक के अतिरिक्त अन्यगति; अधिक कहाँ तक कहें, तिनके के हिलने जैसी क्रिया भी ( इन्ही पंचमहाभूतों से ) होती है ।
६५६ - तं च पदुद्देसेणं पुढोभूतसमवातं जाणेज्जा, तं जहा - पुढवी एगे महन्सूते, प्राऊ दोच्चे महभूते तेऊ तच्चे महब्भूने, वाऊ चउत्थे महब्भूते, श्रागासे पंचमें महब्भूते । इच्चेते पंच महन्भूता प्रणिम्मिता प्रणिमेया कडा णो कित्तिमा णो कडगा प्रणादिया अणिधणा श्रवंझा अपुरोहिता सतंता
सासता ।
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६५६—उस भूत-समवाय (समूह) को पृथक् पृथक् नाम से जानना चाहिए। जैसे कि - पृथ्वी एक महाभूत है, जल दूसरा महाभूत है, तेज (अग्नि) तीसरा महाभूत है, वायु चौथा महाभूत है और प्रकाश पांचवाँ महाभूत है । ये पांच महाभूत किसी कर्त्ता के द्वारा निर्मित ( बनाये हुए) नहीं हैं, न ही ये किसी कर्त्ता द्वारा बनवाए हुए (निर्मार्पित) हैं, ये किये हुए (कृत) नहीं है, न ही ये कृत्रिम ( बनावटी) हैं, और न ये अपनी उत्पत्ति के लिए किसी की अपेक्षा रखते हैं । ये पांचों महाभूत प्रादि एवं अन्त रहित हैं तथा अवन्द्य - अवश्य कार्य करने वाले हैं । इन्हें कार्य में प्रवृत्त करने वाला कोई दूसरा पदार्थ नहीं है, ये स्वतंत्र एवं शाश्वत (नित्य) हैं ।
६५७ - प्रायछट्टा पुण एगे, एवमाहु-सतो णत्थि विणासो असतो णत्थि संभवो ।' एताव ताव जीवकाए, एताव ताव श्रत्थिकाए, एताव ताव सव्वलोए, एतं मुहं लोगस्स कारणयाए, अवि यंतसो तणमातमवि ।
से किणं किणावेमाणे, हणं घातमाणे, पयं पथावेमाणे, श्रवि अंतसो पुरिसमवि विविकणित्ता घायइत्ता, एत्थ वि जाणाहि णत्थि एत्थ दोसो ।
६५७ - कोई ( सांख्यवादी) पंचमहाभूत और छठे आत्मा को मानते हैं । वे इस प्रकार कहते हैं कि सत् का विनाश नही होता और असत् की उत्पत्ति नहीं होती । (वे पंचमहाभूतवादी कहते हैं -) " इतना ही ( यही) जीव काय है, इतना ही (पंचभूतों का अस्तित्वमात्र ही ) अस्तिकाय है, इतना ही ( पंचमहाभूतरूप ही ) समग्र जीवलोक है । ये पंचमहाभूत ही लोक के प्रमुख कारण (समस्त कार्यों में व्याप्त) हैं, यहां तक कि तृण का कम्पन भी इन पंचमहाभूतों के कारण होता है ।"
( इस दृष्टि से आत्मा असत् या प्रकिञ्चित्कर होने से ) 'स्वयं खरीदता हुआ, दूसरे से खरीद कराता हुआ, एवं प्राणियों का स्वयं घात करता हुआ तथा दूसरे से घात कराता हुआ, स्वयं पकाता और दूसरों से पकवाता हुआ ( उपलक्षण से इन सब असदनुष्ठानों का अनुमोदन करता हुआ), यहां
१. तुलना - 'नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
भगवद्गीता प्र. २, श्लो. १६.