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[ सूत्रकृतांगसूत्र - द्वितीय श्र तस्कन्ध
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हव्वाए जो पाराए अंतरा कामभोगेसु विसण्णा । इति पढमे पुरिसज्जाते तज्जीव-तस्सरीरिए श्राहिते ।
६५३ - इन शरीरात्मवादियों ने पहले तो वह प्रतिज्ञा की होती है कि 'हम अनगार (घरबार के त्यागी), अकिंचन ( द्रव्यादि रहित ) अपुत्र ( पुत्रादि के त्यागी) अपशु ( पशु आदि के स्वामित्व से रहित), परदत्तभोजी ( दूसरों के द्वारा दिये गए भिक्षान्न पर निर्वाह करने वाले) भिक्षु एवं श्रमण ( राम सम एवं श्रम-तप की साधना करने वाले) बनेंगे, अब हम पापकर्म ( सावद्य कार्य ) नहीं करेगें'; ऐसी प्रतिज्ञा के साथ वे स्वयं दीक्षा ग्रहण करके ( प्रव्रजित होकर ) भी पाप कर्मों (सावद्य प्रारम्भसमारम्भादि कार्यों) से विरत (निवृत्त) नहीं होते, वे स्वयं परिग्रह को ग्रहण ( स्वीकार) करते हैं, दूसरे से ग्रहण कराते हैं और परिग्रह ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करते ( अच्छा समझते हैं, इसी प्रकार वे स्त्री तथा अन्य कामभोगों में ग्रासक्त ( मूच्छित ), गृद्ध, उनमें अत्यधिक इच्छा और लालसा से युक्त, लुब्ध ( लोभी), राग-द्व ेष के वशीभूत एवं प्रात ( चिन्तातुर ) रहते हैं । वे न तो अपनी आत्मा को संसार से या कर्म - पाश (बन्धन) से मुक्त कर पाते हैं, न वे दूसरों को मुक्त कर सकते हैं, और ने अन्य प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्वों को मुक्त कर सकते हैं । वे ( उक्त शरीरात्मवादी प्रथम असफल पुरुष के समान) अपने स्त्री- पुत्र, धन धान्य आदि पूर्वसंयोग गृहावास या ज्ञातिजनवास) से प्रभ्रष्ट (प्रहीन ) हो चुके हैं, और प्रार्यमार्ग ( सम्यग्दर्शनादियुक्त मोक्षमार्ग) को नहीं पा सके हैं । अतः वे न तो इस लोक के होते हैं, और न ही पर लोक के होते हैं ( किन्तु उभयलोक के सदनुष्ठान से भ्रष्ट होकर ) बीच में कामभोगों – (के कीचड़ ) में प्रासक्त हो ( फंस ) जाते हैं ।
इस प्रकार प्रथम पुरुष तज्जीव- तच्छरीरवादी कहा गया है ।
विवेचन - प्रथम पुरुष : तज्जीव- तच्छीरवादी का वर्णन - सूत्रसंख्या ६४८ से ६५३ तक छह सूत्रों द्वारा शास्त्रकार ने कई पहलुओं से तज्जीव- तच्छरीरवादी - पूर्वोक्त प्रथम पुरुष - का वर्णन किया है । वे पहलू इस प्रकार हैं
( १ ) अन्यतीर्थिकों में से प्रथम अन्यतीर्थिक द्वारा अपने राजा आदि धर्मश्रद्धालुनों के समक्ष तज्जीव- तच्छरीरवादरूप स्वधर्म के स्वरूप का निरूपण ।
(२) उनके द्वारा जीव शरीर- पृथक्वादियों पर प्रथम प्राक्षेप - शरीर से आत्मा को वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, आकार-प्रकार आदि के रूप में पृथक् करके स्पष्टतया बतला नहीं सकते ।
(३) द्वितीय श्राक्षेप - जीव और शरीर को निम्नोक्त पदार्थों के सदृश पृथक्-पृथक् करके उपलब्ध नहीं करा सकते - ( १ ) तलवार और म्यान की तरह, (२) मुंज और इषिका की तरह, (३) मांस और हड्डी की तरह (४) हथेली और आँवले की तरह, (५) दही और मक्खनकी तरह, (६) तिल की खली और तेल की तरह, (७) ईख के रस और उसके छिलके की तरह, (८) अरणि की लकड़ी और आग की तरह ।
(४) तज्जीव- तच्छरीरवादियों के द्वारा जीव अजीव परलोक आदि न माने जाने के कारण जीवहिंसा, चोरी, लूट आदि की निरंकुश प्रवृत्ति करने-कराने का वर्णन |
(५) उनके द्वारा सत्क्रिया - प्रसत्क्रिया, सुकृतदुष्कृत, कल्याण - पाप, सिद्धि प्रसिद्धि, धर्म-अधर्म आदि न माने जाने के कारण किये जाने वाले विविध प्रारम्भकार्य एवं कामभोग- सेवन के लिए विविध दुष्कृत्यों का वर्णन ।