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________________ पौण्डरीक : प्रथम अध्ययन : सूत्र ६४४ ] [ १५ गए। इसके पीछे रहस्य यह मालूम होता है, ये बेचारे इसे प्राप्त करने के उपाय, श्रम या मार्ग को नहीं जानते, न इस कार्य को करने में कुशल विचारक एवं विद्वान् हैं।" तत्पश्चात् वह भिक्षु चारों की हुई इस दुर्दशा के कारणों पर विचार करके उससे बहुत बड़ी प्रेरणा लेता है । वह अपने अन्तर्मन में पहले तटस्थदृष्टि से सोचता है कि कहीं मैं तो इनके जैसा ही नहीं हूँ । अन्तनिरीक्षण के बाद वह इस निर्णय पर आता है कि जिन कारणों से ये लोग पुण्डरीक को पाने में असफल रहे, उन कारणों से मैं दूर ही रहूँगा।" फिर उसने अपनी अन्तरात्मा में डुबकी लगा कर यह भी जानने का प्रयत्न किया कि मुझमें इस श्रेष्ठ कमल को पाने की योग्यता, आत्मशक्ति एवं दृढ़विश्वास है या नहीं, जिसके बल पर मैं इस श्वेतकमल को अपने पास बुला सकू । और वह इस निश्चय पर पहुँचा कि मैं एक निःस्पृह भिक्षाजीवी साधु हूँ, मेरे मन में स्वार्थ, द्वेष, घृणा, द्रोह, मोह आदि नहीं है, मैं मोक्षतट पर पहुँचने को इच्छुक हूँ । इसलिए मेरा आत्मविश्वास है कि मैं मोक्ष-सम, दुष्प्राप्य इस श्वेतकमल को अवश्य ही प्राप्त कर सकेगा।" और इसी आत्मविश्वास एवं आत्मशक्ति से प्रेरित होकर वह भिक्षु पुष्करिणी में प्रविष्ट न हो कर उसके तट पर खड़ा होकर ही उक्त श्वेतकमल को अपने निकट बुलाने में समर्थ हो सका। __शास्त्रकार ने इस रहस्य को यहाँ नहीं खोला है कि वह उत्तम श्वेतकमल पुष्करिणी से बाहर कैसे निकल कर आ गया ? यहाँ तो रूपक के द्वारा इतना ही बताया गया है कि पुष्करिणी के मध्य में स्थित श्वेतकमल को पाने में कौन असफल रहे, कौन सफल ? अगले सूत्रों में इन दृष्टान्तों को घटित किया गया है। दृष्टान्तों के दार्टान्तिक की योजना ६४४–किट्टिते णाते समणाउसो ! अढे पुण से जाणितव्वे भवति । भंते ! ति समणं भगवं महावीरं निग्गंथा य निग्गंथीयो य वंदंति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वदासी-किट्टिते नाए समणाउसो ! अळं पुण से ण जाणामो। ____समणाउसो ! ति समणे भगवं महावीरे ते य बहवे निग्गंथा य निग्गंथीयो य प्रामंतित्ता एवं वदासी-हंता समणाउसो! प्राइक्खामि विभावेमि किट्टेमि पवेदेमि सअळं सहेउं सनिमित्तं भुज्जो भुज्जो उवदंसेमि। ६४४-(श्रमण भगवान् महावीर स्वामी कहते हैं-) "आयुष्मान् श्रमणो ! तुम्हें मैंने यह दृष्टान्त (ज्ञात) कहा है। इसका अर्थ (भाव) तुम लोगों को जानना चाहिए।" 'हाँ, भदन्त !" कह कर साधु और साध्वी श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना और नमस्कार करते हैं । वन्दना-नमस्कार करके भगवान महावीर से इस प्रकार कहते हैं- "आयुष्मन् श्रमण भगवान् ! आपने जो दृष्टान्त बताया उसका अर्थ (रहस्य) हम नहीं जानते।" . (इस पर) श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने उन बहुत-से निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थिनियों को सम्बोधित करके इस प्रकार कहा–'आयुष्मान् श्रमण-श्रमणियो ! मैं इसका अर्थ (रहस्य) बताता हूँ, अर्थ स्पष्ट (प्रकट) करता हूँ । पर्यायवाची शब्दों द्वारा उसे कहता हूँ, हेतु और दृष्टान्तों द्वारा हृदयंगम कराता हूँ; अर्थ, हेतु और निमित्त सहित उस अर्थ को बार-बार बताता हूँ।"
SR No.003439
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages282
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size20 MB
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