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[ सूत्रकृतांगसूत्र - द्वितीय श्र तस्कन्ध
पौण्डरीक (श्वेत) कमल स्थित बताया गया है । वह भी उत्तमोत्तम क्रम से विलक्षण रचना से युक्त है, तथा कीचड़ और जल से ऊपर उठा हुआ है, अथवा बहुत ऊँचा है । वह अत्यन्त रुचिकर या दीप्तिमान् है, मनोज्ञ है, उत्तम सुगन्ध से युक्त है, विलक्षण रसों से सम्पन्न है, कोमलस्पर्श युक्त है, अत्यन्त आह्लादक दर्शनीय, मनोहर और अतिसुन्दर है ।
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( निष्कर्ष यह है) उस सारी पुष्करिणी में जहाँ-तहाँ इधर-उधर सभी देश-प्रदेशों में बहुत से उत्तमोत्तम पुण्डरीक (श्वेत कमल ) भरे पड़े (बताए गए ) हैं । वे क्रमशः उतार-चढ़ाव से सुन्दर रचना से युक्त हैं, जल और पंक से ऊपर उठे हुए, काफी ऊँचे, विलक्षण दीप्तिमान् उत्तम वर्ण- गन्ध-रस- स्पर्श 'युक्त तथा पूर्वोक्त गुणों से सम्पन्न अत्यन्त रूपवान् एवं अद्वितीय सुन्दर हैं ।
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उस समग्र पुष्करिणी के ठीक बीच में एक महान् उत्तमपुण्डरीक ( श्वेतकमल) बताया गया है, जो क्रमशः उभरा हुआ यावत् ( पूर्वोक्त) सभी गुणों से सुशोभित बहुत मनोरम है ।
विवेचन - पुष्करिणी और उसके मध्य में विकसित पुण्डरीक का वर्णन - प्रस्तुत सूत्र में शास्त्रकार ने संसार का मोहक स्वरूप सरलता से समझाने और उसके आकर्षण से ऊपर उठकर साधक को मोक्ष के अभिमुख करने के लिए पुष्करिणी और पुण्डरीक के रूपक का अवलम्बन लिया है ।
पुष्करिणी के विस्तृत वर्णन के पीछे दो मुख्य रहस्य प्रतीत होते हैं
(१) पुष्करिणी की विशालता एवं व्यापकता से संसार की भी व्यापकता (चतुर्गतिपर्यन्त तथा अनन्तकालपर्यन्त) और विशालता ( चतुर्दशरज्जुपरिमित) को साधक समझले ।
(२) जैसे इसमें विविध कमल, उनकी स्वाभाविक सजावट, उनकी वर्ण - गन्ध-रस - स्पर्श की उत्तमता आदि चित्ताकर्षक एवं मनोहारी होने से व्यक्ति उन्हें पाने के लिए ललचाता है, वैसे ही जगत् के विविध विषयों और चित्ताकर्षक भोगोपभोगयोग्य पदार्थों की बाह्य सुन्दरता, मोहकता आदि देख - कर अपरिपक्व साधक सहसा ललचा जाता है। इसी प्रकार पुण्डरीक कमल के छटादार वर्णन के पीछे दो प्रेरणाएँ प्रतीत होती हैं - ( १ ) पुण्डरीक के समान संसार के विषयभोगरूपी पंक एवं कर्म - जल से ऊपर उठकर संयमरूप श्वेतकमल को ग्रहण करे; और (२) मोक्ष प्राप्ति के लिए संसार की मोहमाया से ऊपर उठकर साधक श्रेष्ठ पुण्डरीकसम सम्यग्दर्शनादि रूप
'को अपनाए । '
'सव्वावति' पद से पुष्करिणी और पौण्डरीक कमल के वर्णन को संक्षेप में दोहराने के पीछे शास्त्रकार का आशय पुष्करिणी और पौण्डरीक दोनों के चित्ताकर्षक वर्णन का निष्कर्ष बताना प्रतीत होता है । वृत्तिकार का आशय तो मूलार्थ में दिया जा चुका है। चूर्णिकार का आशय यह है – “सभी मृणाल, नाल, पत्र, केसर, किंजल्क ( कली) से युक्त अनुक्रम से प्राप्त, अथवा जहाँ-तहाँ उतार-चढ़ाव से उभरे हुए पुण्डरीक कमल । " २
१. सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक २७१ पर से
२. ( क ) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक २७२ पर से (ख) सूयगडंग चूर्णि ( मू. पा. टि. ) पृ. १२२