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नालन्दकीय : सप्तम अध्ययन : सूत्र ८६५]
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के बाहर के प्रदेश में, जो त्रस और स्थावर प्राणी हैं, उनके उत्पन्न होते हैं, जिनमें से त्रस प्राणियों को तो श्रमणोपासक ने व्रतग्रहण के समय से लेकर अामरणान्त दण्ड देने का और स्थावर प्राणियों को निरर्थक दण्ड देने का त्याग किया होता है। अतः उन (त्रस-स्थावर) प्राणियों के सम्बन्ध में श्रमणोपासक का (किया हुआ) प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान होता है। वे प्राणी भी कहलाते हैं यावत् चिरकाल की स्थिति वाले भी होते हैं । अतः श्रावकों के प्रत्याख्यान को निविषय कहना न्यायपूर्ण नहीं है ।
[४] (श्रमणोपासक द्वारा निर्धारित भूमि के) अन्दर वाले प्रदेश में जो स्थावर प्राणी हैं, श्रमणोपासक ने जिनको प्रयोजनवश (सार्थक) दण्ड देने का त्याग नहीं किया है, किन्तु बिना प्रयोजन के दण्ड (अनर्थदण्ड) देने का त्याग किया है। वे स्थावरप्राणी वहाँ से अपनी आयु (देह) को छोड़ देते हैं, आयु छोड़ कर श्रमणोपासक द्वारा स्वीकृत मर्यादा के अन्दर के प्रदेश में जो त्रस प्राणी हैं, जिनको दण्ड देने का श्रमणोपासक ने व्रतग्रहण के समय से मरणपर्यन्त प्रत्याख्यान कर रखा है, प्राणियों) में उत्पन्न होते हैं। तब उन (पूर्वजन्म में स्थावर और वर्तमान जन्म में त्रस) प्राणियों के विषय में किया हुआ श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान होता है । वे प्राणी भी कहलाते हैं, त्रस भी; यावत् चिरस्थितिक भी होते हैं । अतः त्रस या स्थावर प्राणियों का अभाव मान कर श्रमणोपासक के प्रत्याख्यान को निविषय बताना न्यायसंगत नहीं है।
| श्रावक द्वारा स्वीकृत मर्यादा के अन्दर के क्षेत्र में जो स्थावर प्राणी हैं, जिनको सार्थक दण्ड देने का त्याग श्रमणोपासक नहीं करता अपितु वह उन्हें निरर्थक दण्ड देने का त्याग करता है। वे प्राणी आयुष्य पूर्ण होने पर उस शरीर को छोड़ देते हैं, उस शरीर को छोड़ कर श्रमणोपासक द्वारा गहीत मर्यादित भूमि के अन्दर ही जो स्थावर प्राणी हैं, जिनको श्रमणोपासक ने सार्थक नहीं छोड़ा है, किन्तु निरर्थक दण्ड देने का त्याग किया है, उनमें उत्पन्न होता है। अतः इन प्राणियों के सम्बन्ध में किया हुआ श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान (सफल) होता है। वे प्राणी भी हैं, यहाँ तक कि चिरकाल की स्थिति वाले भी हैं। अतः श्रमणोपासक के (पूर्वोक्त) प्रत्याख्यान को निविषय कहना न्याययुक्त नहीं है ।
[६] श्रावक द्वारा स्वीकृत मर्यादाभूमि के अन्दर जो स्थावर प्राणी हैं, श्रमणोपासक ने जिन की सार्थक हिंसा का त्याग नहीं किया, किन्तु निरर्थक हिंसा का त्याग किया है, वे स्थावर प्राणी वहां से आयुष्यक्षय होने पर शरीर छोड़ कर श्रावक द्वारा निर्धारित मर्यादाभूमि के बाहर जो त्रस और स्थावर प्राणी हैं; जिनको दण्ड देने का श्रमणोपासक ने व्रतग्रहण के समय से मरण तक त्याग किया हुआ है, उनमें उत्पन्न होते हैं । अतः उनके सम्बन्ध में किया हुआ श्रमणोपासक का (पूर्वोक्तपद्धति से) प्रत्याख्यान सूप्रत्याख्यान होता है। वे प्राणी भी कहलाते हैं, यहाँ तक कि चिरकाल की स्थिति वाले भी होते हैं । अतः श्रपणोपासक के प्रत्याख्यान को निविषय बताना न्याययुक्त नहीं है।
[७] श्रमणोपासक द्वारा निर्धारित मर्यादाभूमि से बाहर जो त्रस-स्थावर प्राणी हैं, जिन को व्रतग्रहण-समय से मृत्युपर्यन्त श्रमणोपासक ने दण्ड देने का त्याग कर दिया है; वे प्राणी आयुक्षीण होते ही शरीर छोड़ देते हैं, शरीर छोड़कर वे श्रमणोपासक द्वारा स्वीकृत मर्यादाभूमि के अन्दर जो त्रस प्राणी हैं, जिनको दण्ड देने का श्रमणोपासक ने व्रतारम्भ से लेकर प्रायुपर्यन्त त्याग किया हुआ है, उनमें उत्पन्न होते हैं। इन (पूर्वजन्म में त्रस या स्थावर, किन्तु इस जन्म में त्रस) प्राणियों के सम्बन्ध में (किया हुआ) श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान होता है। क्योंकि वे प्राणी