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पौण्डरीक : प्रथम अध्ययन
प्राथमिक
0 सूत्रकृतांगसूत्र (द्वि. श्रु.) के प्रथम अध्ययन का नाम 'पौण्डरीक' है। 0 पुण्डरीक शब्द श्वेत शतपत्र (सौ पंखुड़ियों वाले उत्तम श्वेत कमल), तथा पुण्डरीक नामक एक
राजा (जो उत्तम संयमनिष्ठ साधु बना) के अर्थ में प्रयुक्त होता है । - नियुक्तिकार ने पुण्डरीक के नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, गणन, संस्थान और भाव, ये
आठ निक्षेप किये हैं, नामपुण्डरीक तथा स्थापनापुण्डरीक सुगम हैं। द्रव्यपुण्डरीक सचित्त
अचित्त, मिश्र तीन प्रकार के होते हैं। - द्रव्यपुण्डरीक का अर्थ है-सचित्तादि द्रव्यों में जो श्रेष्ठ, उत्तम, प्रधान, प्रवर, एवं ऋद्धिमान्
हो । इस दृष्टि से नरकगति को छोड़ कर शेष तीनों गतियों में जो-जो सुन्दर या श्रेष्ठ पदार्थ हो, उसे पुण्डरीक और निकृष्ट को कण्डरीक समझना चाहिए। जलचर, स्थलचर, खेचर, उरपरिसर्प एवं भुजपरिसर्प में स्वभाव से या लोकानुश्रुति से जो प्रवर व प्रधान हैं, वे .द्रव्यपुण्डरीक हैं । मनुष्यों में अरिहन्त, चक्रवर्ती, चारणश्रमण, विद्याधर, हरिवंशादि उच्चकुलोत्पन्न तथा ऋद्धिसम्पन्न आदि द्रव्य पौण्डरीक हैं। चारों निकायों के देवों में इन्द्र, सामानिक आदि प्रधान होने से पौण्डरीक है । इसी प्रकार अचित्त एवं मिश्र द्रव्य पौण्डरीक समझ लेने चाहिए।
देवकुरु आदि शुभ प्रभाव, एवं भाव वाले क्षेत्र क्षेत्रपौण्डरीक हैं । - भवस्थिति की दृष्टि से अनुत्तरौपपातिक देव तथा कायस्थिति की दृष्टि से एक, दो, तीन या
सात-पाठ भवों के अनन्तर मोक्ष पाने वाले शुभ एवं शुद्धाचार से युक्त मनुष्य कालपौण्डरीक हैं । परिकर्म, रज्जु आदि से लेकर वर्ग तक दस प्रकार के गणित में रज्जुगणित प्रधान होने से वह
गणनपौण्डरीक है। - छह संस्थानों में से समचतुरस्र संस्थान श्रेष्ठ होने से संस्थानपौण्डरीक है। 0 औदयिक से लेकर सान्निपातिक तक छह भावों में से जिस-जिस भाव में जो प्रधान या
प्रवर हों, वे भावपौण्डरीक हैं, शेष भावकण्डरीक हैं। जैसे कि प्रौदयिक भाव में तीर्थंकर, अनुत्तरौपपातिक देव, तथा श्वेत शतपत्रवाला कमल हैं, इसी तरह अन्य भावों में भी जो श्रेष्ठ हैं, वे भावपौण्डरीक हैं। अथवा सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र में, ज्ञानादिविनय में तथा धर्मध्यानादि अध्यात्म में जो श्रेष्ठ मुनि हैं, वे भावतः पौण्डरीक हैं, शेष कण्डरीक हैं। प्रस्तुत अध्ययन में सचित्त तिर्यञ्चयोनिक एकेन्द्रिय वनस्पतिकायिक श्वेतकमलरूप द्रव्यपौण्डरीक का अथवा प्रौदयिक भाववर्ती वनस्पतिकायिक श्वेतशतपत्र रूप भावपौण्डरीक का,
तथा सम्यग्दर्शन, चारित्र, विनय-अध्यात्मवर्ती सुसाधु-श्रमण रूप भावपौण्डरीक का वर्णन है।' १. (क) सूत्रकृतांग नियुक्ति गा. १४४ । १५७ तक
(ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक २६८-२६९ का सारांश