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नालन्दकीय : सप्तम अध्ययन सूत्र ८५६ ]
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लौट आने पर उनके समस्त प्राणिहिंसा का प्रत्याख्यान नहीं रहता; इसी प्रकार जिस श्रमणोपासक
सजीवों को हिंसा का प्रत्याख्यान है, उसके स्थावरपर्याय को प्राप्त जीवों का प्रत्याख्यान नहीं था, किन्तु जब वे जीव कर्मवशात् स्थावरपर्याय को छोड़ कर सपर्याय में आ जाते हैं, तब वह उन वर्त्तमान में त्रस जीवों की हिंसा नहीं करता, किन्तु जब वे ही त्रसजीव त्रसपर्याय को छोड़ कर पुनः कर्मवश स्थावरपर्याय में आ जाते हैं, तब उसके वह पूर्वोक्त प्रत्याख्यान नहीं रहता । वर्तमान में स्थावरपर्याय प्राप्त जीवों की हिंसा से उसका उक्त प्रत्याख्यान भंग नहीं होता ।
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(३) तृतीय संवाद का निष्कर्ष - श्रमणदीक्षा ग्रहण करने से पूर्व परिव्राजक - परिव्राजिकागण साधु के लिए सांभोगिक व्यवहारयोग्य नहीं थे, श्रमणदीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् वे साधु लिए सांभोगिक व्यवहार-योग्य हो चुके; किन्तु कालान्तर में श्रमण - दीक्षा छोड़ कर पुनः गृहवास स्वीकार करने पर वे भूतपूर्व श्रामण्य दीक्षित वर्तमान में गृहस्थपर्याय में होने से साधु के लिए सांभोगिक व्यवहारयोग्य नहीं रहते, इसीप्रकार जो जीव स्थावरपर्याय को प्राप्त थे, वे श्रमणोपाक के लिए हिंसा के प्रत्याख्यानयोग्य नहीं थे, बाद में कर्मवशात् जब वे स्थावरपर्याय को छोड़ कर सपर्याय में आ जाते हैं, तब वे श्रमणोपासक के लिए हिंसा के प्रत्याख्यानयोग्य हो जाते हैं, किन्तु कालान्तर में यदि कर्मवशात् वे भूतपूर्व त्रस त्रसपर्याय को छोड़ कर पुनः स्थावरपर्याय में आ जाते हैं, तो श्रमणोपासक के लिए वे हिंसा के प्रत्याख्यानयोग्य नहीं रहते । अर्थात् – उस समय वे जीव उसके प्रत्याख्यान के विषय नहीं रहते । इससे यह सिद्ध हुआ कि प्रत्याख्यान पर्याय की अपेक्षा से होता है, द्रव्य की अपेक्षा से नहीं । यानी आत्म (जीव ) तो वही होता है किन्तु उस की पर्याय बदल जाती है । अतः श्रावक का प्रत्याख्यान वर्तमान त्रसपर्याय की अपेक्षा से है । '
दृष्टान्तों और युक्तियों द्वारा श्रमणोपासक - प्रत्याख्यान की निर्विषयता का निराकरण -
८५६ - भगवं च णं उदाहु-संतेगतिया समणोवासगा भवंति तेसि च णं एवं वृत्तपुव्वं भवति - णो खलु वयं संचाएमो मुंडा भवित्ता अगारातो प्रणगारियं पव्वइत्तए, वयं णं चाउद्दट्ठमासिणी पपुण्णं पोसधं सम्मं प्रणुपालेमाणा विहरिस्सामो, थूलगं पाणातिवायं पच्चाइविसामो एवं थूलगं मुसावादं थूलगं प्रदिण्णादाणं थूलगं मेहुणं थूलगं परिग्गहं पच्चाइक्खिस्सामो, इच्छापरिमाणं करिस्सामो, दुविहं तिविहेणं, मा खलु मम श्रट्टाए किंचि वि करेह वा कारावेह वा, तत्थ वि पच्चाई क्खिस्सामो, ते प्रभोच्चा श्रपिच्चा प्रसिणाइत्ता श्रासंदिपीढियाश्रो पच्चोरुभित्ता, ते तहा कालगता कि वत्तव्वं सिया ? सम्मं कालगत त्ति वत्तव्वं सिया । ते पाणा वि वच्चंति, ते तसा विवच्चति, ते महाकाया, ते चिरट्टिइया, ते बहुतरगा पाणा जहिं समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवति, ते परागा जेहि समणोवासगस्स अपच्चक्खायं भवति, इति से महयाश्रो० जण्णं तुम्भे वयह तं चैव जाव श्रयं विभे देसे णो णेयाउए भवति ।
८५६ - भगवान् श्री गौतमस्वामी ने ( प्रकारान्तर से उदकनिर्ग्रन्थ को समझाने के लिए) कहा - " कई श्रमणोपासक बड़े शान्त होते हैं । वे साधु के सान्निध्य में श्रा कर सर्वप्रथम यह कहते
१. सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ४१८ का सारांश