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________________ १८६] [ सूत्रकृताँगसूत्र - द्वितीय श्र तस्कन्ध विपुल ( अनेक ) भवनों, शयन, आसन, यान ( रथ, पालकी आदि) एवं वाहनों (घोड़े आदि सवारियों) से परिपूर्ण था । उसके पास प्रचुर धन सम्पत्ति व बहुत-सा सोना एवं चांदी थी । वह धनार्जन के उपायों (प्रयोगों) का ज्ञाता और अनेक प्रयोगों में कुशल था । उसके यहाँ से बहुत-सा आहार- पानी लोगों को वितरित किया ( बांटा) जाता था । वह बहुत-से दासियों, दासों, गायों, भैंसों और भेड़-बकरियों का स्वामी था । तथा अनेक लोगों से भी पराभव नहीं पाता था ( दबता नहीं था ) | वह लेप नामक गाथापति श्रमणोपासक (निर्ग्रन्थ श्रमणों का उपासक ) भी था । वह जीवअजीव का ज्ञाता था । ( पुण्य-पाप का तत्त्व उसे भलीभांति उपलब्ध हो गया था । वह श्राश्रव संवर, वेदना, निर्जरा, अधिकरण, बन्ध और मोक्ष के तत्त्वज्ञान में कुशल था । ( वह उपासकदशांग सूत्र में वर्णित श्रमणोपासक की विशेषताओं से युक्त था ) । वह देवगणों से सहायता नहीं लेता था, न ही देवगण उसे धर्म से विचलित करने में समर्थ थे । वह लेप श्रमणोपासक (निर्ग्रन्थ- प्रवचन में शंकारहित ) था, अन्य दर्शनों की आकांक्षा या धर्माचरण की फलाकांक्षा से दूर था, उसे धर्माचरण के फल में कोई सन्देह न था, अथवा गुणी पुरुषों की निन्दा - जुगुप्सा से दूर रहता था । वह लब्धार्थ (निर्ग्रन्थप्रवचनरूप या सूत्रचारित्ररूप धर्म के वस्तुतत्व को उपलब्ध कर चुका ) था, वह गृहीतार्थ (मोक्ष मार्ग रूप अर्थ स्वीकृत कर चुका था, वह पृष्टार्थ (विद्वानों से पूछ कर तत्त्वज्ञान प्राप्त कर चुका था, अतएव वह विनिश्चितार्थ (विशेष रूप से पूछ कर अर्थनिश्चय कर चुका था । वह अभिगृहीतार्थं ( चित्त में अर्थ की प्रतीति कर चुका ) था । धर्म या निर्ग्रन्थप्रवचन के अनुराग में उसकी हड्डियाँ और न ( रगें) रंगी हुई थीं । ( उससे धर्म के सम्बन्ध में कोई पूछता तो वह यही कहता था - ) 'आयुष्मन् ! यह निर्ग्रन्थप्रवचन ही सत्य है, यही परमार्थ है, इसके अतिरिक्त शेष सभी ( दर्शन या धर्म लौकिक सर्वज्ञ कल्पित होने से ) अनर्थरूप हैं । उसका स्फटिकसम निर्मल यश चारों ओर फैला हुआ था । उसके घर का मुख्यद्वार याचकों के लिए खुला रहता था । राजाओं के अन्तःपुर में भी उसका प्रवेश निषिद्ध नहीं था इतना वह (शील और अर्थ के सम्बन्ध में ) विश्वस्त था । वह चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा के दिन प्रतिपूर्ण (आहार, शरीर सत्कार, अब्रह्मचर्य एवं व्यापार से निवृत्तिरूप ) पोषध का सम्यक् प्रकार से पालन करता हुआ श्रावकधर्म का आचरण करता था । वह श्रमणोंनिर्ग्रन्थों को तथाविध शास्त्रोक्त ४२ दोषों से रहित निर्दोष एषणीय अशन-पान-खाद्य-स्वाद्यरूप चतुर्विध के दान से प्रतिलाभित करता हुआ, बहुत से (यथागृहीत) शील (शिक्षाव्रत ), गुणव्रत, तथा हिंसादि से विरमणरूप अणुव्रत, तपश्चरण, त्याग, नियम, प्रत्याख्यान एवं पोषधोपवास आदि से ) अपनी आत्मा को भावित करता हुआ धर्माचरण में रत रहता था । ८४४ - तस्स णं लेयस्स गाहावतिस्स नालंदाए बाहिरियाए बहिया उत्तरपुरत्थि मे दिसीभाए एत्थ णं सेसदविया नाम उदगसाला होत्या प्रणेगखंभसयसन्निविट्ठा पासादीया जाव' पडिरूवा । तीसे णं सेसदवियाए उदगसालाए उत्तरपुरत्थि मे दिसीभाए, एत्थ णं हत्थिजामे नामं वणसंडे होत्था किण्हे, वणओ वणसंडस्स । १. यहाँ 'जाव' शब्द से 'पासादीया' से 'पडिरूवा' तक का पाठ यों समझना चाहिए ....... दरिसणिज्जा, अभिरूवा ।" २. वनखण्ड के 'वर्णक' के लिए देखिये -- श्रपपातिक सूत्र ३ में'से णं वणसंडे किन्हे किन्होभासे" अभिरूवा पडिरूवा" तक पाठ ।
SR No.003439
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages282
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size20 MB
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