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नालन्दकीय : सप्तम अध्ययन
प्राथमिक
0 सूत्रकृतांग सूत्र (द्वि. श्रु.) के सप्तम अध्ययन का नाम 'नालन्दीय' या 'नालन्दकीय' है ।
इस अध्ययन का नाम 'नालन्दीय' होने के दो कारण नियुक्तिकार एवं वृत्तिकार बताते हैं (१) नालन्दा में इस अध्ययन का अर्थ प्रतिपादन होने के कारण, और (१) नालन्दा के निकट
वर्ती उद्यान में यह घटना या चर्चा निष्पन्न होने के कारण। । नालन्दा के समीप मनोरथ नामक उद्यान में भ. महावीर के पट्टशिष्य गणधर इन्द्रभूति गौतम
के साथ पावपित्यीय निर्ग्रन्थ उदक पेढालपुत्र की जो धर्मचर्चा हुई है, उसका वर्णन इस अध्ययन में होने से इसका नाम 'नालन्दीय' रखा गया है। नालन्दा उस युग में जैन और बौद्ध दोनों परम्पराओं में प्रसिद्ध (राजगह की) उपनगरी थी।' 'नालन्दा' का अर्थ भी गौरवपूर्ण है-जहाँ श्रमण, ब्राह्मण, परिव्राजक आदि किसी भी भिक्षाचर के लिए दान का निषेध नहीं है । राजा, श्रेणिक तथा बड़े-बड़े सामन्त, श्रेष्ठी आदि नरेन्द्रों का निवास होने के कारण इसका नाम 'नारेन्द्र' भी प्रसिद्ध हुआ, जो मागधी उच्चारण के अनुसार 'नालेंद' और बाद में ह्रस्व के कारण नालिंद तथा 'इ' का 'अ' होने से नालंद हुआ। भगवान् महावीर के यहाँ १४ वर्षावास होने के कारण इस उपनगरी के अतिप्रसिद्ध होने के कारण भी इस अध्ययन का नाम 'नालन्दकीय' रखा जाना स्वाभाविक है ।' प्रस्तुत अध्ययन में सर्वप्रथम धर्मचर्चास्थल बताने के लिए राजगृह, नालन्दा, श्रमणोपासक लेप गाथापति, उसके द्वारा निर्मित शेषद्रव्या उदकशाला तथा उसके निकटवर्ती हस्तियाम वनखण्ड, तदन्तवर्ती मनोरथ उद्यान का वर्णन किया गया है। तत्पश्चात श्री गौतमस्वामी और उदक निर्ग्रन्थ की धर्मचर्चा का प्रश्नोत्तर के रूप में वर्णन है। धर्मचर्चा मुख्यतया श्रमणोपासक के प्रत्याख्यान के सम्बन्ध में है, जिसके मुख्य दो मुद्दे उदकनिर्ग्रन्थ की ओर से प्रश्न के रूप में प्रस्तुत किये गए हैं – (१) श्रमणोपासक द्वारा ग्रहण किया जाने वाला त्रसवध प्रत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान है, उसका पालन सम्भव नहीं है; क्योंकि त्रस जीव मरकर स्थावर हो जाते हैं, और स्थावर जीव मरकर त्रस । ऐसी स्थिति में त्रसस्थावर का निश्चय करना कठिन होता है। इसलिए क्या त्रस के बदले ‘त्रसभूत' शब्द का प्रयोग नहीं होगा ? 'त्रसभूत' का अर्थ हैवर्तमान में जो जीव त्रस-पर्याय में है। उसकी हिंसा का प्रत्याख्यान तथा (२) सभी त्रस यदि कदाचित् स्थावर हो जाएँगे तो श्रमणोपासक का सवधप्रत्याख्यान निरर्थक एवं निविषय हो जाएगा।" श्री गौतम द्वारा अनेक युक्तियों और दृष्टान्तों द्वारा दोनों प्रश्नों का विस्तार से समाधान किया गया है। अन्त में उदक निम्रन्थ भ. महावीर के चरणों में स्व-समर्पण करके
पंचमहाव्रत रूप धर्म स्वीकार कर लेते हैं । यह सब रोचक वर्णन है ।। 0 प्रस्तुत अध्ययन सूत्र संख्या ८४२ से प्रारम्भ होकर सू. सं. ८७३ पर समाप्त होता है।
१. (क) सूत्र कृ. शी. वृत्ति पत्रांक ४०७ (ख) सत्र कृ. नियुक्ति गा. २०४,२०५ २. सूत्र कृ. मूलपाठ टिप्पण (जम्बूविजय जी) पृ. २३४ से २५८ तक