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अनाचारभुत : पंचम अध्ययन : सूत्र ७८२-७८५ ]
[१६१ कहते हैं । जगत् में कल्याण और पाप दोनों प्रकार वाले पदार्थों का अस्तित्व है। इस प्रत्यक्ष दृश्यमान सत्य को झुठलाया नहीं जा सकता।
बौद्धों का कथन है-जगत् में कल्याण नामक कोई पदार्थ नहीं है, सभी पदार्थ अशुचि और निरात्मक हैं। कल्याण नामक पदार्थ न होने से कोई भी व्यक्ति कल्याणवान नहीं है । परन्तु ऐसा मानने पर बौद्धों के उपास्यदेव भी अशुचि सिद्ध होंगे जो उन्हें अभीष्ट नहीं है। इसीलिए सभी पदार्थ अशुचि नहीं हैं, न ही निरात्मक हैं, क्योंकि सभी पदार्थ स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा से सत् हैं, परद्रव्य-क्षेत्र-कालभाव की अपेक्षा से असत् हैं, ऐसा मानना ठीक है। आत्मद्वैतवादी के मतानुसार आत्मा से भिन्न कोई पदार्थ नहीं है, सभी पदार्थ आत्म (पुरुष) स्वरूप हैं। इसलिए कल्याण और पाप नाम की कोई वस्तु नहीं है। किन्तु यह प्रत्यक्ष-बाधित है । ऐसा मानने से जगत की दृश्यमान विचित्रता संगत नहीं हो सकती।
अतः जगत् में कल्याण और पाप अवश्य है, ऐसा अनेकान्तात्मक दृष्टि से मानना चाहिए। कतिपय निषेधात्मक आचार सूत्र
७८२–कल्लाणे पावए वा वि, ववहारो ण विज्जई।
___ जं वेरं तं न जाणंति, समणा बालपंडिया ॥२६॥ . ७८२. यह व्यक्ति एकान्त कल्याणवान् (पुण्यवान्) है, और यह एकान्त पापी है, ऐसा व्यवहार नहीं होता, (तथापि) बालपण्डित (सद्-असद-विवेक से रहित होते हुए भी स्वयं को पण्डित मानने वाले) (शाक्य आदि) श्रमण (एकान्त पक्ष के अवलम्बन से उत्पन्न होने वाले); वैर (कर्मबन्धन) नहीं जानते।
७८३-असेसं अक्खयं वा वि, सव्वदुक्खे त्ति वा पुणो।
वज्झा पाणा न वज्झ त्ति, इति वायं न नीसरे ॥३०॥ ६८३. जगत् के अशेष (समस्त) पदार्थ अक्षय (एकान्त नित्य) हैं, अथवा एकान्त अनित्य हैं, ऐसा कथन (प्ररूपण) नहीं करना चाहिए, तथा सारा जगत् एकान्तरूप से दुःखमय है, ऐसा वचन भी नहीं कहना चाहिए एवं अमुक प्राणी वध्य है, अमुक अवध्य है, ऐसा वचन भी साधु को (मुह से) नहीं निकालना चाहिए।
७८४-दीसंति समियाचारा, भिक्खुणो साहुजीविणो।
एए मिच्छोवजीवि त्ति, इति विटुिं न धारए ॥३१॥ ७८४. साधुतापूर्वक जीने वाले, (शास्त्रोक्त) सम्यक् प्राचार के परिपालक निर्दोष भिक्षाजीवी साधु दृष्टिगोचर होते हैं, इसलिए ऐसी दृष्टि नहीं रखनी चाहिए कि ये साधुगण कपट से जीविका (जीवननिर्वाह) करते हैं।
७८५–दक्खिणाए पडिलंभो, अस्थि नत्थि ति वा पुणो ।
ण वियागरेज्ज मेहावी, संतिमग्गं च वूहए ॥३२॥ ७८५. मेधावी (विवेकी) साधु को ऐसा (भविष्य-) कथन नहीं करना चाहिए कि दान