________________
१५८ ]
[ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध भोगना (अनुभव-वेदन करना) होता है। इससे वेदना तत्त्व का अस्तित्व सिद्ध होता है। प्रागम में भी कहा है-'पहले अपने द्वारा कृत दुष्प्रतीकार्य दुष्कर्मों (पापकर्मों) का वेदन (भोग) करके ही मोक्ष होता है, बिना भोगे नहीं।' इस प्रकार वेदना का अस्तित्व सिद्ध होने पर निर्जरा का अस्तित्व स्वतः सिद्ध हो जाता है । अतः वेदना और निर्जरा दोनों का अस्तित्व मानना अत्यावश्यक है।
(८) किया और प्रक्रिया-चलना, फिरना आदि क्रिया है और इनका अभाव प्रक्रिया ।
सांख्यमतवादी आत्मा को आकाश के समान व्यापक मान कर उसमें क्रिया का अस्तित्व नहीं मानते । वे आत्मा (पुरुष) को निष्क्रिय कहते हैं ।
बौद्ध समस्त पदार्थों को क्षणिक मानते हैं अतः पदार्थों में उत्पत्ति के सिवाय अन्य किसी क्रिया को नहीं मानते।
आत्मा में क्रिया का सर्वथा अभाव मानने पर बन्ध-मोक्ष की व्यवस्था नहीं हो सकती । न ही वह आत्मा सुख-दुःख का भोक्ता हो सकता है । अतः संयोगावस्था तक आत्मा में क्रिया रहती है, प्रयोगावस्था में आत्मा अक्रिय हो जाता है ।२
(९) क्रोध, मान, माया और लोभ-अपने या दूसरे पर अप्रीति करना क्रोध है, गर्व करना मान है, कपट को माया और वितृष्णा को लोभ कहते हैं ।
__इन चारों कषायों का अस्तित्व प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सिद्ध है। दसवें गुण-स्थान तक कषाय आत्मा के साथ रहता है, बाद में आत्मा निष्कषाय हो जाता है ।
(१०) राग और द्वष-अपने धन, स्त्री, पुत्र आदि पदार्थों के प्रति जो प्रीति या आसक्ति होती है, उसे प्रेम, या राग कहते हैं। इष्ट वस्तु को हानि पहुँचाने वाले व्यक्ति के प्रति चित्त में अप्रीति या घृणा होना द्वष है। कई लोगों का मत है कि माया और लोभ इन दोनों में राग या प्रेम तथा क्रोध और मान, इन दोनों में द्वोष गतार्थ हो जाता है फिर इनके समुदायरूप राग या द्वष को अलग पदार्थ मनाने की क्या आवश्यकता है ? क्योंकि समुदाय अपने अवयवों से पृथक् पदार्थ नहीं है। किन्तु यह मान्यता एकान्ततः सत्य नहीं है; समुदाय (अवयवी) अपने अवयवों से कथञ्चिद् भिन्न तथा कथञ्चिद् अभिन्न होता है । इस दृष्टि से राग और द्वेष दोनों का कथंचित् पृथक् पृथक् अस्तित्व है।
चातुर्गतिक संसार-नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव ये चार गतियाँ हैं । जीव स्व-स्व कर्मानुसार इन चारों गतियों में जन्म-मरण के रूप में संसरण-परिभ्रमण करता रहता है, यही चातुर्गतिक संसार है । यदि चातुर्गतिक संसार न माना जाए तो शुभाशुभकर्म-फल भोगने की व्यवस्था नहीं हो सकती। इसलिए चार गतियों वाला संसार मानना अनिवार्य है। कई लोग कहते हैं-यह संसार कर्मबन्धनरूप तथा जीवों को एकमात्र दुःख देने वाला है, अतः एक ही प्रकार का है।
कई लोग कहते हैं-इस जगत् में मनुष्य और तिर्यञ्च ये दो ही प्रकार के प्राणी दृष्टि
१. पुट्वि दुच्चिण्णाणं दुप्पडिक्कंताणं वेइत्ता मोक्खो, णत्थि अवेइत्ता ।
-सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक ३७७ से ३७९ तक से उद्ध त । २. सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक ३७९-३८०.