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प्रत्याख्यान - क्रिया : चतुर्थ अध्ययन : सूत्र ७४९ ]
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जाव परिग्गहे, कोहे जाव मिच्छादंसणसल्ले । श्राचार्य श्राह - तत्थ खलु भगवता वहए दिट्ठ ते पण्णत्त, 'जहानामए वहए सिया गाहावतिस्स वा गाहावतिपुत्तस्स वा रण्णो वा रायपुरिसस्स वा खणं निदाए विसामि खणं ल ण वहिस्सामि पहारेमाणे, से कि नु हु नाम से वहए तस्स वा गाहावतिस्स तस्स वा गाहावतिपुत्तस्स तस्स वा रण्णो तस्स वा रायपुरिसस्स खणं निदाए पविसिस्सामि खणं लद्धण हिस्सा पहारेमाणे ' दिया वा राम्रो वा सुत्ते वा जागरमाणे वा श्रमित्तभूते मिच्छासंठिते निच्चं पसढविनोवातचित्तदंडे भवति ? एवं वियागरेमाणे समियाए वियागरे चोयए-हंता भवति ।
प्राचार्य श्राह - जहा से वहए तस्स वा गाहावतिस्स तस्स वा गाहावतिपुत्तस्स तस्स वा रणो तस्स वा रायपुरिसस्स खणं णिदाए पविसिस्सामि खणं लद्ध ण वहिस्सामीति पहारेमाणे दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा श्रमित्तभूते मिच्छासंठिते निच्चं पसढविओवातचित्तदंडे एवामेव बाले वि सव्वेंस पाणाणं जाव सत्ताणं पिया वा रातो वा सुत्ते वा जागरमाणे वा श्रमित्तभूते मिच्छासंठिते निच्चं पसढविश्रोवातचित्तदंडे, तं० पाणाइवाते जाव मिच्छादंसणसल्ले, एवं खलु भगवता श्रक्खाए श्रस्संजते प्रविरते श्रपsिहयपच्चक्खायपावकम्मे सकिरिए श्रसंबुडे एगंतदंडे एगंतबाले एगंतसुत्ते यावि भवति,
बाले वियारमण-वयस - काय - वक्के सुविणमवि ण परसति, पावे य से कम्मे कज्जति । जहा से वहए तस्स वा गाहावतिस्स जाव तस्स वा रायपुरिसस्स पत्तेयं पत्तेयं चित्त समादाए दिया वा राम्रो वा सुत्ते वा जागरमाणे वा श्रमित्तभूते मिच्छासंठिते निच्चं पसढविप्रोवात चित्तदंडे भवति, एवामेव बाले सव्वेंसि पाणाणं जाव सर्व्वेस सत्ताणं पत्तेयं पत्तेयं चित्त समादाए दिया वा रातो वा सुत्ते वा जागरमाणे वा श्रमित्तभूते मिच्छासंठिते जाव चित्तदंडे भवइ ।
७४ε—इस सम्बन्ध में प्रज्ञापक ( उत्तरदाता) ने प्रेरक ( प्रश्नकार) से इस प्रकार कहा- जो मैंने पहले कहा था कि मन पाप युक्त न हो, वचन भी पापयुक्त न हो, तथा काया भी पापयुक्त न हो, वह किसी प्राणी की हिंसा भी न करता हो, मनोविकल हो, चाहे वह मन, वचन, काया और वाक्य का समझ-बूझकर (विचारपूर्वक ) प्रयोग न करता हो, और वैसा ( पापकारी ) स्वप्न भी न देखता हो, अर्थात् अव्यक्त विज्ञान (चेतना) वाला हो, ऐसा जीव भी पापकर्म करता (बांधता) हैं, वही सत्य है । ऐसे कथन के पीछे कारण क्या है ? प्राचार्य ( प्रज्ञापक) ने कहा - इस विषय में श्री तीर्थंकर भगवान् ने षट्जीवनिकाय कर्मबन्ध के हेतु के रूप बताए हैं । वे षड्जीवनिकाय पृथ्वीका से लेकर त्रसकाय पर्यन्त हैं । इन छह प्रकार के जीवनिकाय के जीवों की हिंसा से उत्पन्न पाप को जिस आत्मा ने ( तपश्चर्या आदि करके) नष्ट (प्रतिहत ) नहीं किया, तथा भावी पाप को प्रत्याख्यान के द्वारा रोका नहीं, बल्कि सदैव निष्ठुरतापूर्वक प्राणियों की घात में चित्त लगाए रखता है, और उन्हें दण्ड देता है तथा प्राणातिपात से लेकर परिग्रह- पर्यन्त तथा क्रोध से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक के पापस्थानों से निवृत्त नहीं होता है, ( वह चाहे किसी भी अवस्था में हो, अवश्यमेव पापकर्म का बन्ध करता है, यह सत्य है 1 )
( इस सम्बन्ध में) आचार्य (प्ररूपक) पुनः कहते हैं - इसके विषय में भगवान् महावीर ने aar (हत्या) का दृष्टान्त बताया है - कल्पना कीजिए - कोई हत्यारा हो, वह गृहपति की अथवा १. नागार्जुनीय सम्मत पाठ - 'अप्पणी अक्खणयाए तस्स वा पुरिसस्स छिद्द अलभमाणे णो वहेइ,.... मे से पुरिसे व वयवे भविस्सइ एवं मणो पहारेमाणे ... चूर्णि० - सूत्रकृ. वृत्ति पत्रांक ३६४