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________________ आहारपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन : सूत्र ७३८ ] [ १२५ तसथावराणं पाणाणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा आहारेति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरे वि त णं तेसि तस-थावरजोणियाणं अणुसूयाणं सरीरा नाणावण्णा जावमक्खातं । एवं दुरूवसंभवत्ताए ।' एवं खुरुदुगताए । अहावरं पुरक्खायं-इहेगइया सत्ता नाणाविह० जाव कम्म० खुरुदुगत्ताए वक्कमंति। ७३८-इसके पश्चात् श्री तीर्थंकर देव ने (अन्य जीवों की उत्पत्ति और आहार के सम्बन्ध में) निरूपण किया है । इस जगत् में कई प्राणी नाना प्रकार की योनियों में उत्पन्न होते हैं । वे अनेक प्रकार की योनियों में स्थित रहते हैं, तथा विविध योनियों में आकर संवर्धन पाते हैं । नाना प्रकार की योनियों में उत्पन्न, स्थित और संवृद्धित वे जीव अपने पूर्वकृत कर्मानुसार उन कर्मों के ही प्रभाव से विविध योनियों में आकर (विकलेन्द्रिय त्रस के रूप में) उत्पन्न होते हैं । वे प्राणी अनेक प्रकार के त्रस स्थावर-पुद्गलों के सचित्त या अचित्त शरीरों में उनके आश्रित होकर रहते हैं। वे जीव अनेकविध त्रस-स्थावर प्राणियों के स्नेह का आहार करते हैं । इसके अतिरिक्त वे जीव पृथ्वी से लेकर वनस्पति तक के शरीरों का भी आहार करते हैं । उन त्रस-स्थावर योनियों से उत्पन्न, और उन्ही के आश्रित रहने वाले प्राणियों के विभिन्न वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाले, विविध संस्थान (आकार तथा रचना) वाले और भी अनेक प्रकार के शरीर होते हैं, यह श्री तीर्थंकरदेव ने कहा है। . इसी प्रकार विष्ठा और मूत्र आदि में कुरूप विकलेन्द्रिय प्राणी उत्पन्न होते हैं और गाय भैंस आदि के शरीर में चर्मकीट उत्पन्न होते हैं। विवेचन-विकलेन्द्रिय त्रस प्राणियों की उत्पत्ति, स्थिति संवृद्धि और आहार की प्रक्रियाप्रस्तुत सूत्र में विकलेन्द्रिय प्राणियों की स्थिति आदि के सम्बन्ध में निरूपण किया गया है। विकलेन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति के स्रोत-मनुष्यों एवं तिर्यञ्च पंचेन्द्रियों के सचित्त शरीर में पसीने आदि में जू, लीख, चीचड़ (चर्मकील) आदि सचित्त शरीर संस्पर्श से खटमल आदि पैदा होते हैं, तथा मनुष्य के एवं विकलेन्द्रिय प्राणियों के अचित्त शरीर (कलेवर) में कृमि आदि उत्पन्न हो जाते हैं । सचित्त अग्निकाय तथा वायुकाय से भी विकेलेन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति होती है । वर्षाऋतु में गर्मी के कारण जमीन से कुथं प्रा आदि संस्वेदज तथा मक्खी, मच्छर आदि प्राणियों की उत्पत्ति होती है। इसी प्रकार जल से भी अनेक विकलेन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति होती है । वनस्पतिकाय से भ्रमर आदि २. दुरुवसंभवत्ताए-जिनका विरूप रूप हो, ऐसे कृमि आदि के रूप में । अथवा पाठान्तर है—'दुरुतत्ताए विउति'-दुरूतंनाम मुत्तपुरीसादी सरीरावयवा तत्थ सचित्तेसु मणुस्साण ताव पोट्टेसु समिगा, गंडोलगा, कोठाओ अ संभवन्ति संजायन्ते""भणिता दुरूतसंभवा' दुरूत कहते हैं मूत्र-मल आदि शरीर निःसृत अंगभूत तत्त्वों को तथा सचित्त मनुष्यों के पेट में तथा अन्य अवयवों में गिडोलिए, केंचुए, कृमि, क्रोष्ठ आदि उत्पन्न होते हैं। -सूत्र कृ. चूणि (मू. पा. टि.) पृ. २०६ २. खुरुदुगताए-"खुरूड्डगा नाम जीवंताण चेव गोमहिसादीणं चम्मस्स अंतो सम्मुच्छंति । अर्थात-खरूद्ग या खुरुड्डग उन्हें कहते हैं, जो जीवित गाय-भैंसों की चमड़ी पर सम्मूच्छिमरूप से उत्पन्न होते हैं। -सूत्र कृ. चूर्णि, (मू. पा. टि.) पृ. २०६
SR No.003439
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages282
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size20 MB
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