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द्वितीय श्रु तस्कंध के विषय में सामान्यतः यही कहा जाता है कि प्रथम श्रुतस्कंध में परवादि-दर्शनों की सूत्र रूप में की गई चर्चा का विस्तार, तथा विविध उपनय एवं दृष्टान्तों द्वारा पर-वाद का खण्डन एवं स्व-सिद्धान्त का मण्डन-द्वितीय श्रु तस्कंध का विषय है। द्वितीय श्रु तस्कंध की शैली में विविधता के भी दर्शन होते हैं । सत्रहवाँ पोंडरीक अध्ययन एक ललित काव्य-कल्पना का रसास्वादन भी कराता है, दर्शनिक विचारधाराओं को पुष्करिणी एवं कमल के उपनय द्वारा बड़ी सरसता के साथ समझाया गया है। १८, १९, २०, २१–ये अध्ययन जहाँ शुद्ध दार्शनिक एवं सैद्धान्तिक वर्णन प्रस्तुत करते हैं वहाँ २२ एवं २३ वां अध्ययन सरस कथा शैली में संवादों के रूप में भ्रान्त मान्यताओं का निराकरण करके स्व-मान्यता की प्रस्थापना बड़ी सहजता के साथ करते हैं। उदाहरण के रूप में--गोशालक भ० महावीर के प्रति आक्षेप करता है कि महावीर पहले एकान्तसेवी थे, किंतु अब हजारों लोगों के झुड के बीच रहते हैं, अतः अब उनकी साधना दूषित हो गई है।
मुनि पाक कुमार इस आक्षेप का ऐसा सटीक अध्यात्मचिन्तनपूर्ण उत्तर देता है कि वह हजारों वर्ष बाद आज भी अध्यात्मजगत का प्रकाशस्तंभ बना हुआ है । देखिए मुनि आर्द्र क का उत्तरमाइक्खमाणो वि सहस्समज्झे एगंतयं सारयति तहच्चे।
-सूत्रांक-७९० भले ही भगवान महावीर हजारों मनुष्यों के बीच बैठकर धर्म-प्रवचन करते हैं, किंतु वे आत्मद्रष्टा हैं, राग-द्वेष से रहित हैं, अत: वे सदा अपने आप में स्थित हैं।
हजारों क्या, लाखों के बीच रहकर भी वे वास्तव में एकाकी ही हैं, अपनी आत्मा के साथ रहने वाले साधक पर बाहरी प्रभाव कभी नहीं पड़ता।
अध्यात्म-योग की यह महान् अनुभूति आर्द्र क कुमार ने सिर्फ दो शब्दों में ही व्यक्त करके गोशालक की बाह्य-दृष्टि-परकता को ललकार दिया है। संवादों में इस प्रकार की आध्यात्मिक अनुभूतियों से आर्द्रकीय अध्ययन बड़ा ही रोचक व शिक्षाप्रद बन गया है।
२३ वें (छठे) नालन्दीय अध्ययन में तो गणधर गौतम एक मनोवैज्ञानिक शिक्षक के रूप में प्रस्तुत होते हैं जो उदक पेढालपुत्र को सहजता और वत्सलता के साथ विनय व्यवहार की शिक्षाएं देते हुए उसकी धारणाओं का परिष्कार करते हैं।
वास्तव में प्रथम श्र तस्कंध जहाँ तर्क-वितर्क प्रधान चर्चाओं का केन्द्र है, वहां द्वितीय श्र तस्कंध में तर्क के साथ श्रद्धा का सुन्दर सामञ्जस्य प्रकट हुआ है। इस प्रकार द्वितीय श्र तस्कंध प्रथम का पूरक ही नहीं, कुछ विशेष भी है, नवीन भी है। और अनुद्घाटित अर्थों का उद्घाटक भी है।
प्रस्तुत संपादन :
सूत्रकृत के प्रस्तुत सौंपादन में अब तक प्रकाशित अनेक संस्करणों को लक्ष्य में रखकर संपादन विवेचन किया गया है। मुनि श्री जम्बूविजयजी द्वारा संपादित मूल पाठ हमारा आदर्श रहा है, किन्तु उसमें भी यत्र-तत्र चणिसम्मत कुछ सशोधन हमने किये हैं। प्राचार्य भद्रबाहुकृत नियुक्ति, प्राचीनतम संस्कृतमिश्रित-प्राकृतव्याख्या चणि, तथा प्राचार्य शीलांक कृत वृत्ति-इन तीनों के आधार पर हमने मूल का हिन्दी भावार्थ व विवेचन करने का प्रयत्न किया है। कहीं-कहीं चूर्णिकार तथा वृत्तिकार के पाठों में पाठ-भेद तथा अर्थ-भेद भी हैं। यथाप्रसंग उसका भी उल्लेख करने का प्रयास मैंने किया है, क्योंकि पाठक उन दोनों के अनुशीलन से स्वयं की बुद्धि-कसौटी
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