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आहारपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन : सूत्र ७२३ ] नाणाफासा नाणासंठाणसंठिया नाणाविहसरीरपोग्गलविउविता, ते जीवा कम्मोववन्ना भवंतीति • मक्खायं ।
(३) प्रहावरं पुरक्खायं इहेगतिया सत्ता रुक्खजोणिया रुक्खसंभवा रुक्खवक्कमा तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा(मा) कम्मोवगा कम्मनिदाणेणं तत्थवक्कमा रुक्खजोणिएसु रुक्खेसु रुक्खत्ताए विउटैंति, ते जीवा तेसि रुक्खजोणियाणं रुक्खाणं सिणेहमाहरेंति, ते जीवा पाहारेंति पुढविसरीरं
आउ० तेउ० वाउ० वणस्सतिसरीरं, नाणाविहाणं तस-थावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति परिविद्वत्थं तं सरीरगं पुवाहारितं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं । प्रवरे वि य गं तेसि रुक्खजोणियाणं रुक्खाणं सरीरा णाणावण्णा जाव ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंतीति मक्खायं ।
(४) प्रहावरं पुरक्खायं-इहेगतिया सत्ता रुक्खजोणिया रुक्खसंभवा रुक्खवक्कमा तज्जोणिया तस्संभवा तवक्कमा कम्मोवगा कम्मनिदाणेणं तत्थवक्कम्मा (मा) रुक्खजोणिएसु रुक्खेसु मूलत्ताए कंदत्ताए खंधत्ताए तयत्ताए सालत्ताए पवालत्ताए पत्तत्ताए पुप्फत्ताए फलत्ताए बीयत्ताए विउति, ते जीवा तेसि रुक्खजोणियाणं रुक्खाणं सिणेहमाहारेति, ते जीवा प्राहारेंति पुढविसरीरं प्राउ० तेउ० वाउ० वणस्सति०, नाणाविहाणं तस-थावराणं पाणाणं सरीरं प्रचित्तं कुव्वंति, परिविद्धत्थं तं सरीरगं जाव सारूविकडं संतं, प्रवरे वि य णं तेसि रुक्खजोणियाणं मूलाणं कंदाणं खंधाणं तयाणं सालाणं पवालाणं जाव बीयाणं सरीरा नाणावण्णा नाणागंधा जाव नाणाविहसरीरपोग्गलविउविया, ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंतीति मक्खायं ।
७२३-[१] उन बीज कायिक जीवों में जो जिस प्रकार के बीज से, जिस-जिस अवकाश (उत्पत्ति स्थान अथवा भमि, जल, काल, प्रकाश और बीज के संयोग) से उत्पन्न होने
पन्न होने की योग्यता रखते हैं, वे उस उस बीज से तथा उस-उस अवकाश में उत्पन्न होते हैं। इस दृष्टि से कई बीज कायिक जीव पृथ्वीयोनिक होते हैं, पृथ्वी पर (उस बीज और अवकाश से) उत्पन्न होते हैं, उसी पर स्थित रहते हैं और उसी पर उनका विकास होता है ।
इसलिए पृथ्वीयोनिक, पृथ्वी पर उत्पन्न होने वाले और उसी पर स्थित रहने व बढ़ने वाले वे जीव (बीज-कायिक प्राणी) कर्म के वशीभूत होकर तथा कर्म के निदान (आदिकारण) से आकर्षित होकर वहीं (पृथ्वी पर ही) वृद्धिगत होकर नाना प्रकार की योनि वाली पृथ्वियों पर वृक्ष रूप में उत्पन्न होते हैं । वे जीव नाना जाति की योनियों वाली पृथ्वियों के स्नेह (स्निग्धता) का आहार करते हैं । वे जीव (स्वशरीर सन्निकृष्ट) पृथ्वी शरीर अप्-शरीर (भौम या आकाशीय जल के शरीर) तेजःशरीर, (अग्नि की राख आदि) वायु शरीर और वनस्पति-शरीर का आहार करते हैं। तथा वे पृथ्वी जीव नाना-प्रकार के त्रस और स्थावर प्राणियों के शरीर को अचित्त (प्रासुक) कर देते हैं। वे आदि के अत्यन्त विध्वस्त (पूर्व जीव से मुक्त) उस शरीर को कुछ प्रासुक कुछ परितापित कर देते हैं, वे (वनस्पतिजीव) इन (पृथ्वीकायादि) के पूर्व-आहारित (पृथ्वीकायादि से उत्पत्ति के समय उनका जो आहार किया था, और स्वशरीर के रूप में परिणत) किया था, उसे अब भी (उत्पत्ति के बाद भी) त्वचास्पर्श द्वारा आहार करते हैं, तत्पश्चात् उन्हें स्वशरीर के रूप में विपरिणत करते हैं ।