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________________ १०२ ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध ७१६. (परमार्थतः आत्मौपम्यमयी अहिंसा ही धर्म सिद्ध होने पर भी) धर्म के प्रसंग में जो श्रमण और माहन ऐसा कहते हैं, यावत ऐसी प्ररूपणा करते हैं कि समस्त प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्त्वों का हनन करना चाहिए उन पर आज्ञा चलाना चाहिए, उन्हें दास-दासी आदि के रूप में रखना चाहिए, उन्हें परिताप (पीड़ा) देना चाहिए, उन्हें क्लेश देना चाहिए, उन्हें उपद्रवित (भयभीत) करना चाहिए। ऐसा करने वाले वे भविष्य में 'अपने शरीर को छेदन-भेदन आदि पीड़ाओं का भागी बनाते हैं । वे भविष्य में जन्म, जरा, मरण, विविध योनियों में उत्पत्ति फिर संसार में पुनः जन्म गर्भवास, और सांसारिक प्रपंच (अरहट्टघटिका न्यायेन संसारचक्र) में पड़कर महाकष्ट के भागी होंगे । वे घोर दण्ड के भागी होंगे। वे बहुत ही मुण्डन, तर्जन, ताड़न, खोड़ी बन्धन के यहाँ तक कि घोले (पानी में डुबोए) जाने के भागी होंगे। तथा माता, पिता, भाई, भगिनी, भार्या, पुत्र, पुत्री, पुत्रवधू आदि मरण दुःख के भागी होंगे। (इसी प्रकार) वे दरिद्रता, दुर्भाग्य, अप्रिय व्यक्ति के साथ निवास, प्रियवियोग, तथा बहुत-से दुःखों और वैमनस्यों के भागी होंगे। वे आदि-अन्तरहित तथा दीर्घकालिक (या दीर्घमध्य वाले) चतुर्गतिक संसार रूप घोर जंगल में बार-बार परिभ्रमण करते रहेंगे । वे सिद्धि (मुक्ति) को प्राप्त नहीं होंगे, न ही बोध को प्राप्त होंगे, यावत् सर्वदुःखों का अन्त नहीं कर सकेंगे। (जैसे सावध अनुष्ठान करने वाले अन्यतीर्थिक सिद्धि नहीं प्राप्त कर सकते, वैसे ही सावद्यानुष्ठानकर्ता स्वयूथिक भी सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकते, वे भी पूर्वोक्त अनेक दुःखों के भागी होते हैं। यह कथन सबके लिए तुल्य है, यह प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से सिद्ध है (कि दूसरों को पीड़ा देने वाले चोर, जार आदि प्रत्यक्ष ही दण्ड भोगते नजर आते हैं), (समस्त आगमों का) यही सारभूत विचार है । यह (सिद्धान्त) प्रत्येक प्राणी के लिए तुल्य है, प्रत्येक के लिए यह प्रमाण सिद्ध है, तथा प्रत्येक के लिए (आगमों का) यही सारभूत विचार है। ७२०-तत्थ णं जेते समण-माहणा एवं ग्राहक्खंति जाव परुति-सव्वे पाणा सव्वे मया सम्वे जीवा सव्वे सत्ता ण हंतव्वा ण प्रज्जावेयव्वा ण परिघेत्तव्वा ण उद्दवेयव्वा, ते णो आगंतु छेयाए, ते णो आगंतु भेयाए, ते णो मागंतु जाइ-जरा-मरण-जोणिजम्मण-संसार-पुणब्भव-गब्भवासभवपवंचकलंकलीभागिणो भविस्संति, ते णो बहूणं दंडणाणं जाव णो बहूणं दुक्खदोमणसाणं प्राभागिणो भविस्संति, प्रणातियं च णं प्रणवदग्गं दीहमद्ध चाउरंत संसारकंतारं भुज्जो-भुज्जो णो प्रणपरियट्टिस्संति, ते सिज्झिस्संति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करिस्संति। ७२०-परन्तु धर्म-विचार के प्रसंग में जो सुविहित श्रमण एवं माहन यह कहते हैं किसमस्त प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्त्वों को नहीं मारना चाहिए, उन्हें अपनी आज्ञा में नहीं चलाना एवं उन्हें बलात् दास-दासी के रूप में पकड़ कर गुलाम नहीं बनाना चाहिए, उन्हें डराना-धमकाना या पीड़ित नहीं करना चाहिए, वे महात्मा भविष्य में छेदन-भेदन आदि कष्टों को प्राप्त नहीं करेंगे, वे जन्म, जरा, मरण, अनेक योनियों में जन्म-धारण, संसार में पुनः पुनः जन्म, गर्भवास तथा संसार के अनेकविध प्रपंच के कारण नाना दुःखों के भाजन नहीं होंगे। तथा वे आदि-अन्तरहित, दीर्घ मध्यरूप चतुर्गतिक संसाररूपी घोर वन में बारबार भ्रमण नहीं करेंगे। (अन्त में) वे सिद्धि (मुक्ति) को प्राप्त करेंगे, केवलज्ञान केवलदर्शन प्राप्त कर बुद्ध और मुक्त होंगे, तथा समस्त दुःखों का सदा के लिए अन्त करेंगे।
SR No.003439
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages282
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size20 MB
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