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सूत्रकृतांग--प्रथम अध्ययन-समय
नियत (नियतिकृत) और अनियत (अनियतिकृत) दोनों ही प्रकार के होते हैं, परन्तु बुद्धिहीन (नियतिवादी) इसे नहीं जानते।
३२. इस प्रकार कई (नियतिवाद से ही) पास में रहने वाले, (पार्श्वस्थ) अथवा कर्मपाश (कर्मबन्धन) में जकड़े हुए (पाशस्थ) कहते हैं । वे बार-बार नियति को ही (सुख-दुःखादि का) कर्ता कहने की धृष्टता करते हैं। इस प्रकार (अपने सिद्धान्तानुसार पारलौकिक क्रिया में) उपस्थित होने पर भी वे (स्वयं को) दुःख से मुक्त नहीं कर सकते।
विवेचन-नियतिवाद के गुण-दोष-यहाँ २८वीं गाथा से ३२वीं गाथा तक नियतिवाद के मन्तव्य का और मिथ्या होने का विश्लेषण किया गया है। नियतिवाद की मान्यता यहाँ तक तो ठीक है कि जगत् में सभी जीवों का अपना अलग-अलग अस्तित्व है । यह तथ्य प्रत्यक्ष और अनुमान आदि प्रमाणों और युक्तियों द्वारा सिद्ध है । क्योंकि जब तक आत्मा पृथक्-पृथक् नहीं मानी जायेगी, तब तक जीव
द्वारा कृत कर्मबन्ध के फलस्वरूप प्राप्त होने वाला सुख-दुःख नहीं भोग सकेगा और न ही सुखदुःख भोगने के लिए एक शरीर, एक गति तथा एक योनि को छोड़कर दूसरे शरीर, दूसरी गति तथा योनि को प्राप्त कर सकेगा। जीवों की पृथक्-पृथक् सत्ता मानने पर ही यह सब बातें घटित हो सकती हैं। प्रत्यक्ष और अनुमान के अतिरिक्त इस युक्ति से भी जीव पृथक्-पृथक् इसलिए सिद्ध हैं कि संसार में कोई सुखी, कोई दुःखी, कोई धनी, कोई निर्धन आदि विभिन्नताएँ देखी जाती हैं। प्रत्येक प्राणी को होने वाले न्यूनाधिक सुख-दुःख के अनुभव को हम झुठला नहीं सकते, तथा आयुष्य पूर्ण होते ही वर्तमान शरीर को यहीं छोड़कर दूसरे भव में प्राणी चले जाते हैं, कई व्यक्तियों को अपने पूर्व जन्म का स्मरण हो जाता है, इस अनुभूति को भी मिथ्या नहीं कहा जा सकता । इस प्रकार प्रत्येक आत्मा का पृथक् अस्तित्व सिद्ध हो जाने पर पंचभूतात्मवाद, एकात्मवाद, तज्जीवतछरोरवाद, पंचस्कन्धवाद या चातुर्धातुकवाद आदि वादों का खण्डन हो जाता है। इस अंश में नियतिवाद का कथन सत्य स्पर्शी है। परन्तु इससे आगे जब नियतिवादी यह कहते हैं कि प्राणियों के द्वारा भोगा जाने वाला सुख-दुःख आदि न तो स्व-कृत है, न पर-कृत है, वह एकान्त नियतिकृत ही है, तब उनका यह ऐकान्तिक कथन मिथ्या हो जाता है।
एकान्त नियतिवाद कितना सच्चा, कितना झूठा ?-बौद्धग्रन्थ दीघनिकाय के सामञ्जफलसूत्त में आजीवकमत-प्रवर्तक मक्खलि गोशाल के नियतिवाद का उल्लेख इस प्रकार है-.."सत्त्वों के क्लेश (दुःख) का हेतु प्रत्यय नहीं है। बिना हेतु और प्रत्यय के ही सत्त्व (प्राणी) क्लेश पाते हैं। बिना हेतु और प्रत्यय के सत्त्व शुद्ध होते हैं । न वे स्वयं कुछ कर सकते हैं, और न पराये कुछ कर सकते हैं, (कोई) पुरुषार्थ (पुरुषकार) नहीं है, बल नहीं है, वीर्य नहीं है, पुरुष का साहस (स्थाम) नहीं है, और न पुरुष का कोई पराक्रम है । समस्त सत्त्व, समस्त प्राणी, सभी भूत और सभी जीव अवश (लाचार) हैं, निर्बल हैं, निर्वीय हैं, नियति के संयोग से छह जातियों में (उत्पन्न होकर) सुख-दुःख भोगते हैं। जिन्हें मूर्ख और पण्डित जानकर और अनुगमन कर दुःखों का अन्त कर सकते हैं । वहाँ यह नहीं है कि इस शील, व्रत,
२ (क) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक २६ के आधार पर
(ख) तुलना कीजिए- "सन्तेके समण ब्राह्मणा इवं वादिनो एवं दिठ्ठिनो-असयंकारं अपरंकारं अधिच्चसमुप्पन्न सुखदुक्खं अत्ता च लोक च । इदमेव सच्चं मोघमनं ति । -सुत्तपिटके उदानं नानातित्थिय सुत्तं पृ० १४६-१४७