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सूत्रकृतांग-प्रथममण्यमन-सचन
इन अर्थों के सन्दर्भ में इस पंक्ति की व्याख्या इस प्रकार समझना चाहिए(१) आत्मा के साथ कर्म का कहाँ-कहाँ कैसे-कैसे संयोग, जोड़ या मेल है ? (२) आत्मा के साथ कर्मबन्धन की सन्धि कहाँ-कहाँ, और कैसे-कैसे किन कारणों से हो जाती है।
(३) आत्मा कैसे किस प्रकार कर्मबन्धन से रहित हो सकता है, इस सिद्धान्त, मत या अभिप्राय को वे नहीं जान पाते।
(४) उत्तरोत्तर अधिक पदार्थों (तत्त्वभूत पदार्थों) को वे नहीं जानते।
(५) वे ज्ञानावरणीय आदि अष्टविध कर्मों का विवर (रहस्य) नहीं जानते । अथवा आत्मा को कर्मबन्धन से मुक्ति का अवसर कैसे मिल सकता है ? इस तथ्य को वे नहीं जानते। इस प्रकार संधि को जाने बिना ही वे (पूर्वोक्त) मतवादी क्रिया में प्रवृत्त होते हैं।
__'ण ते धम्मविऊ जणा'-संसारपरिभ्रमणादि दुःखों से मुक्त न होने का दूसरा प्रबल कारण है-उनका धर्मविषयक अज्ञान । जब वे आत्मा को ही नहीं मानते, या मानते हैं तो उसे कूटस्थनित्य, निष्क्रिय, या शरीर या पंचभूतों या चतुर्धातुओं तक ही सीमित, अथवा पंचस्कन्धात्मक क्षणजीवी मानते हैं, तब वे आत्मा के धर्म को उसके ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सुख और वीर्य आदि निजी गुणों को-स्वभाव को कैसे जान पाएंगे? वे तो हिंसादि पापकर्मों को ही आत्मा का स्वाभाविक धर्म समझे बैठे हैं, अथवा आत्मा को जान-मानकर भी वे उसके साथ संलग्न होने वाले कर्मबन्ध को तोड़कर आत्मा को उसके निजी धर्म में रमण नहीं करा पाते। कदाचित् वे शुभकर्मजनित पुण्यवश स्वर्ग पा सकते हैं, परन्तु जन्म-मरणादि दुःखों से सर्वथा मुक्ति नहीं पा सकते, न ही उसके लिए तीर्थंकरों द्वारा आचरित, प्ररूपित एवं अनुभूत सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रतप रूप धर्म की आराधना-साधना करते हैं । वे इस धर्म के ज्ञान और आचरण से कोसों दूर हैं।
उच्चावयाणि गच्छंता गम्भमेस्संति पुणो पुणो-यह भविष्यवाणी वीतराग सर्वज्ञ तीर्थंकर महावीर द्वारा उन्हीं पूर्वोक्त वादियों के लिए की गई है। विश्वहितंकर राग-द्वष मुक्त, सर्वज्ञ निःस्पह महापुरुष किसी के प्रति रोष, द्वेष, वैर, घृणा आदि से प्रेरित होकर कोई वचन नहीं निकालते, उन्होंने अपने ज्ञान में पूर्वोक्त वाद की प्ररूपणा करने वाला जैसा अन्धकारमय भविष्य देखा, वैसा व्यक्त कर दिया। उन्होंने उनके लिए उच्चावयाणि गच्छंता-उच्च नीच गतियों में भटकने की बात कही, उसके पीछे रहस्य यह है कि एक तो वे स्वयं उक्त मिथ्यावादों के कदाग्रहरूप मिथ्यात्व से ग्रस्त हैं, फिर वे हजारों-लाखों जनसमुदाय के समक्ष मुक्ति-सर्वदुःखमुक्ति का प्रलोभन देकर उन्हें भी मिथ्यात्वविष का पान कराते हैं, तब भला वे घोर मिथ्यात्व के प्रचारक इतने कठोर प्रायश्चित्त के बिना कैसे छुटकारा पा सकते हैं ? फिर भी अगर वे गोशालक की तरह बीच में ही सँभल जाएं, अपनी भूल सुधार लें तो कम से कम दण्ड से भी छुट्टी मिल सकती है। परन्तु मिथ्यात्व के गाढ़तम अन्धकार में ही वे लिपटे रहें, सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान प्राप्त करने की उनमें जिज्ञासा भी न हो तो चारों गतियों के दुःखों को भोगना ही पडेगा, अनन्त बार गर्भ में आना ही पड़ेगा।
___ इस प्रकार गणधर श्री सुधर्मास्वामी ने अपने शिष्य श्री जम्बूस्वामी से तीर्थकर भगवान महावीर से साक्षात सुना हुआ वर्णन किया है।
७० सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक २६ के आधार पर
७१ वही, पत्रांक २६