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प्रथम उद्देशक । गाथा १३ से १४
२९ ___ इसी प्रकार स्फटिक के पास लाल रंग का जपापुष्प रख देने से वह लाल-सा प्रतीत होता है, इसी तरह स्वयं भोगक्रिया रहित आत्मा में बुद्धि के संसर्ग से बुद्धि का भोग प्रतीत होता है। यों जपास्फटिक न्याय से आत्मा की भोगक्रिया मानी जाती है।
इस भ्रम के निवारणार्थ दुबारा यह कहना पड़ा-'सव्वं....विज्जइ ।' अर्थात् आत्मा स्वयं किसी भी क्रिया का कर्ता नहीं होता। वह एक देश से दूसरे देश जाने की सभी परिस्पन्दादि क्रियाएँ नहीं करता क्योंकि वह सर्वव्यापी और अमूर्त होने के कारण आकाश की तरह निष्क्रिय है। सांख्यों का विरोधी कथन
सामान्यतया जो कर्ता होता है, वही भोक्ता होता है किन्तु सांख्यमत में कर्ता प्रकृति है, भोक्ता पुरुष (आत्मा) है । दानादि कार्य अचेतन प्रकृति करती है, फल भोगता है-चेतन पुरुष । इस तरह कर्तृत्व-भोक्तृत्व का समानाधिकरणत्व छोड़ कर व्याधिकरणत्व मानना पहला विरोध है । पुरुष चेतनावान है फिर भी नहीं जानता, यह दूसरी विरुद्धता है । पुरुष न बद्ध होता है, न मुक्त और नहीं भवान्तरगामी ही होता है, प्रकृति ही बद्ध, मुक्त और भवान्तरगामिनी होती है, यह सिद्धान्तविरुद्ध, अनुभवविरुद्ध कथन भी धृष्टता ही है इसीलिए कहा गया है--एवमकारओ अप्पा, एवं ते उपगभिया।"४८ पूर्वोक्तं वादियों के मत में लोक-घटना कैसे ?
१४वीं गाथा में तज्जीव-तच्छरीरवाद और अकारकवाद का निराकरण करते हुए इन दोनों मतों को मानने पर जन्म-मरणरूप चातुर्गतिक संसार या परलोक घटित न होने की आपत्ति उठाई है। तज्जीवतच्छरीरवादी शरीर से आत्मा को भिन्न मानते हैं तथा परलोकानुगामी नहीं मानते । तज्जीव-तच्छरीरवाद तथा उसकी ये असंगत मान्यताएँ मिथ्या यों हैं कि शरीर से आत्मा भिन्न सिद्ध होता है। इसे सिद्ध करने के लिए वृत्तिकार ने कुछ प्रमाण प्रस्तुत किये हैं
(१) दण्ड आदि साधनों के अधिष्ठाता कुम्भकार की तरह आत्मा इन्द्रियों आदि करणों का अधिष्ठाता होने से वह इनसे भिन्न है।
(२) संडासी और लोहपिण्ड को ग्रहण करने वाला उनसे भिन्न लुहार होता है, इसी तरह इन्द्रियों (करणों) के माध्यम से विषयों को ग्रहण करने वाला इन दोनों से भिन्न आत्मा है।
(३) शरीररूप भोग्य पदार्थ का भोक्ता शरीर के अंगभूत इन्द्रिय और मन के अतिरिक्त और कोई पदार्थ होना चाहिए, वह आत्मा ही है। ___ आत्मा को परलोकगामी न मानना भी यथार्थ नहीं है। आत्मा का परलोकगमन निम्नोक्त अनु
४७ सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक-२१ ४८ (क) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक २१ (ख) तस्मान्न बध्यते अद्धा न मुच्यते, नाऽपि संसरति कश्चित् ।
संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृतिः ॥
-सांख्यकारिका