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सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय
विवेचन -तज्जीव तच्छरीरवाद का मन्तव्य और उसकी फलश्र ति-इन दोनों गाथाओं में से प्रथम गाथा में तज्जीव-तच्छरीरवाद का मन्तव्य बताया गया है और दूसरी गाथा में इसकी फलश्रु ति ।
____ 'वही जीव है और वही शरीर है,' इस प्रकार जो मानता है, उसे तज्जीव-तच्छरीरवाद कहते हैं ।४२ यद्यपि पंचमहाभूतवादी भी शरीर को ही आत्मा बताता है, किन्तु उसके मत में पंचमहाभूत ही शरीर के रूप में परिणत होकर दौड़ना, बोलना आदि सब क्रियाएँ करते हैं, जबकि तज्जीव तच्छरीर वादी शरीर से चैतन्यशक्ति की उत्पत्ति या अभिव्यक्ति मानता है। शरीर से आत्मा को अभिन्न मानता है, यही इन दोनों वादों में अन्तर है।
यों तो जैनदर्शन, न्यायदर्शन आदि भी कहते हैं-'प्रत्यगात्मा भिद्यते' प्रत्येक प्राणी की आत्मा भिन्न है, वह अपने आप में सम्पूर्ण है, पूर्ण शक्तिमान है, किन्तु तज्जीव-तच्छरीरवाद की मान्यता विचित्र है, वह कहता है-जब तक शरीर रहता है, तब तक ही उसकी आत्मा रहती है, शरीर के नष्ट होते ही आत्मा नष्ट हो जाती है, क्योंकि शरीररूप में परिणत पंचमहाभूतों से जो चैतन्यशक्ति उत्पन्न होती है, वह उनके बिखरते ही या अलग-अलग होते ही नष्ट हो जाती है। शरीर से बाहर निकल कर कहीं अन्यत्र जाता हुआ चैतन्य प्रत्यक्ष नहीं दिखाई देता, इसलिए कहा गया- 'पेच्चा ण ते संति ।" अर्थात्मरने के बाद परलोक में वे आत्माएँ नहीं जाती।
निष्कर्ष यह है कि शरीर से भिन्न स्व-कर्मफलभोक्ता परलोकानुयायी कोई आत्मा नामक पदार्थ नहीं है। जो है, वह शरीर से अभिन्न है। इसी रहस्य को स्पष्ट करने के लिए कहते हैं-"णत्थि सत्तोववाइया'-अर्थात् कोई भी जीव (प्राणी) औपपातिक-एक भव से दूसरे भव में जाने वाले नहीं होते। जैसा कि उनके बृहदारण्यक उपनिषद् में कहा है-"प्रज्ञान (विज्ञान) का पिण्ड यह आत्मा, इन भूतों से उठकर (उत्पन्न होकर) इनके नाश के पश्चात् ही नष्ट हो जाता है, अतः मरने के पश्चात् इसकी चेतना (आत्मा) संज्ञा नहीं रहती।४३ बौद्धग्रन्थ सुत्तपिटकान्तर्गत उदान में, तथा दीघनिकाय के सामञफलसुत्त में इसी से मिलते-जुलते मन्तव्य का उल्लेख है।"
४२ (क) स एव जीवस्तदेव शरीरमितिवदित शीलमस्येति तज्जीव-तच्छरीरवादी।
(ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक-२० ४३ प्र (वि) ज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थायातान्येवानविनश्यति, न प्रेत्यसंज्ञाऽस्तीति ।"
-बृहदारण्यक उपनिषद् प० ४ ब्रा० ६, श्लो. १३ ४४ (क) संते के समणब्राह्मणा एवं वादिनो एवंदिठानो-तं जीवं तं शरीरं, इदमेव सच्चं मोघमति "।
-सुत्तपिटक उदानं, पढमनातित्थियसुत्त पु. १४२ (ख) "अजितकेसकम्बलो में एतदवोच-'नत्थि, महाराज ! दिन्न, नत्थि यिठें नत्थि हुतं, नत्थि सुकतदुक्कटान
कम्मानं फलं विपाको, नत्यि अयं लोको, नत्थि परोलोको, नत्थि माता नत्थि पिता, नत्थि सत्ता ओपपातिका नत्थि लोके-सम-ण ब्राह्मणा सम्मग्गता सम्मापटिपन्ना, ये इमंच लोकं, परं च लोक सयं अभिजा सच्छिकत्वा
(क्रमशः)