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सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय
सिद्धान्त या मत अर्थ ही अधिक संगत होता है। विउक्कम्म- उल्लंघन कर, उलट-पुलट रूप में स्वीकार कर, या जिनोक्त सिद्धान्तों के अस्वीकारकर अथवा छोड़कर । अयाणता-वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है-परमार्थ को न जानते हुए, चूर्णिकार के अनुसार अर्थ है-विरति-अविरति दोषों को न जानते हुए। विउस्सिता-वृत्तिकार ने इसका विवेचन यों किया है-विविध-अनेक प्रकार से उत-प्रबलता से जो सितबद्ध हैं-वे व्युत्सृत हैं-स्व-स्वसमय (सिद्धान्त) से अभिनिविष्ट (चिपके हुए) हैं।
कामेहिसत्ता-की व्याख्या चूर्णिकार के मतानुसार-अप्रशस्त इच्छा वाले गृहस्थ (मानव) शब्दादि कामभोगों में अथवा इच्छारूप एवं मदनरूप कामों में आसक्त हैं, रक्त-गृद्ध हैं, मूच्छित हैं । प्रायः यही व्याख्या वृत्तिकार ने की है।३२
पंच महाभूतवादः
७. संति पंच महन्भूया इहमेगेसिमाहिया।
पुढवी आऊ तेऊ वाऊ आगासपंचमा ॥७॥ ८. एते पंच महन्भूया तेब्मो एगो त्ति आहिया।
अह एसि विणासे उ विणासो होइ देहिणो ॥८॥
७. इस लोक में पांच महाभूत हैं, (ऐसा) किन्हीं ने कहा है । (वे पंच महाभूत हैं) पृथ्वी, जल, तेज, वायु और पांचवां आकाश ।
८ ये पांच महाभूत हैं । इनसे एक (आत्मा उत्पन्न होता है, ऐसा उन्होंने) कहा । पश्चात् इन (पंचमहाभूतों) के विनाश से देही (आत्मा) का विनाश होता है ।
विवेचन-पंचमहाभूतवाद का स्वरूप-इन दो गाथाओं में पंचमहाभूतवाद का स्वरूप बताया गया है। वृत्तिकार इन पंचमहाभूतवादियों को चार्वाक कहते हैं। यद्यपि सांख्यदर्शन और वैशेषिकदर्शन भी पंचमहाभूतों को मानते हैं, परन्तु वे इन पंचमहाभूतों को ही सभी कुछ नहीं मानते। सांख्यदर्शन पुरुष (आत्मा) प्रकृति, महत्तत्व (बुद्धि), अहंकार, पंचज्ञानेन्द्रिय, पंचकर्मेन्द्रिय, पचतन्मात्र (विषय) आदि, तथा वैशेषिकदर्शन दिशा, काल, आत्मा, मन आदि अन्य पदार्थों को भी मानता है, जबकि चार्वाक (लोकायतिक) पंचभूतों के अतिरिक्त आत्मा आदि कोई भी पदार्थ नहीं मानता, इसलिए इन दोनों गाथाओं में उक्त मत लोकायतिक का ही मान कर व्याख्या की गई है।
लोकायतिक मत इस प्रकार है- “पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश, ये पांच महाभूत सर्वलोकव्यापी एवं सर्वजनप्रत्यक्ष होने से महान् है, इनके अस्तित्व से न तो कोई इन्कार कर सका है, और न
३२ विउक्कम्म-एतान् अनन्तरोक्तान् ग्रन्थान् व्युत्क्रम्य परित्यज्य । अयाणता-परमार्थमजानानाः (शी० वृत्ति पत्र१४)
'अयाणं' ता विरति-अविरतिदोसे य ।" (चू० मू० पा० टि० पृ०२) । विउस्सित्ता विविधमनेकप्रकारम् उत् प्राबल्येन सिता बढाः । (शी० वृत्ति प०१४), बीभत्सं वा उत्सृता विउस्सिता (चू० मू० पा० २) एवं सत्ता कामेहिं माणवा - कामाः शब्दादयः, गृहस्था अप्पसत्थिच्छा । कामेसु-इच्छाकामेसु मयणकामेसु वा सत्ता। (चू० मू० पा० टि०२)