SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 496
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गागा ६२२ से ६२४ होता है, (१७) वह समस्त कांक्षाओं का अन्त कर देता है, (१८), मोहनीय आदि घाती कर्मों का अन्त करके ही वह संसार के अन्त (किनारे) तक या मोक्ष के अन्त (सिरे) तक पहुँच जाता है । (१८) वह परीषहों और उपसर्गों को सहने में धीर होता है, (२१) वह अन्त-प्रान्त आहारादि का सेवन करता है, (२१) वह मनुष्य जन्म में दृढ़तापूर्वक धर्माराधना करता है। पाठान्तर और व्याख्या-जण जाति ण मिज्जती-के बदले चूणिसम्मत पाठान्तर है-'जेण आजाइन मज्जते', अर्थ होता है-सर्वकर्मक्षय होने पर न तो पुनः संसार में आता है, और न संसार सागर में डूबता है। 'न मिज्जति' के बदले वृत्तिकारं ने 'ग भिज्जति' पाठ भी माना है। दोनों का मूलार्थ में उक्त अर्थ से भिन्न अर्थ भी वृत्तिकार ने किया है-(१) जाति से यह नारक है, यह तिर्यञ्च है, इस प्रकार का परिगणन नहीं होता, (२) जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक आदि से परिपूर्ण नहीं होता। चूर्णिसम्मत पाठान्तर है-'ण मज्जते'- अर्थात्-संसारसागर में नहीं डूबता । मोक्ष-प्राप्ति किसको सुलभ, किसको दुर्लभ ? . ६२२ नितिट्टा व देवा वा उत्तरीए इमं सुतं । . सुतं च मेतमेगेसि, अमगुस्सेसु णो तहा ॥१६॥ ६२३ अंतं करेंति दुक्खाणं, इहमेगेसि आहितं । ____ आघायं पुण एगेसि, बुल्ल मेऽयं समुस्सए ॥१७॥ ६२४ इतो विद्ध समाणस्स, पुणो संबोहि दुल्लभा। दुल्लमा उ तहच्चा णं जे धम्म? वियागरे ॥१८॥ ६२२. मैंने (सुधर्मास्वामी ने) लोकोत्तर प्रवचन (तीर्थंकर भगवान की धर्मदेशना) में यह (आगे कही जाने वाली) बात सुनी है कि मनुष्य ही सम्यग्दर्शनादि की आराधना से कर्मक्षय करके निष्ठितार्थकृतकृत्य होते हैं, (मोक्ष प्राप्त करते हैं) अथवा (कर्म शेष रहने पर) सौधर्म आदि देव बनते हैं। यह (मोक्ष-प्राप्ति-कृतकृत्यता) भी किन्हीं विरले मनुष्यों को ही होती है, मनुष्ययोनि या गति से भिन्न योनि या गतिवाले जीवों को मनुष्यों की तरह कृतकृत्यता या सिद्धि प्राप्त नहीं होती, ऐसा मैंने तीर्थकर भगवान से साक्षात् सुना है। ६२३. कई अन्यतीथिकों का कथन है कि देव ही समस्त दुःखों का अन्त करते हैं, मनुष्य नहीं; (परन्तु ऐसा सम्भव नहीं, क्योंकि) इस आर्हत्-प्रवचन में तीर्थंकर, गणधर आदि का कथन है कि यह समुन्नत मानव-शरीर या मानव-जन्म (समुच्छय) मिलना अथवा मनुष्य के बिना यह समुच्छय-धर्मश्रवणादि रूप अभ्युदय दुर्लभ है, फिर मोक्ष पाना तो दूर की बात है। ४ सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक २५६ का सारांश ५ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक २५६ (ख) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टि०) पृ० ११२
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy