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गाथा ६१२ से ६२१
६१७ अणुसासणं पुढो पाणे, वसुमं पूयणासते।
अणासते जते दंते, दढे आरयमेहुणे ॥११॥ ६१८ णीवारे य न लीएज्जा, छिन्नसोते अणाइले । ___अणाइले सया दंते, संधि पत्ते अणेलिसं ॥१२॥ ६१६ अणेलिसस्स खेतण्णे, ण विरुज्झेज्ज केणइ।
मणसा वयसा चेव, कायसा चेव चक्खुमं ॥१३॥ ६२० से हु चक्खू मणुस्साणं, जे कंखाए तु अंतए।
अंतेण खुरो वहती, चक्कं अंतेण लोट्टति ॥१४॥ ६२१ अंताणि धोरा सेवंति, तेण अंतकरा इहं ।
___ इह माणुस्सए ठाणे, धम्माराहिउं जरा ॥१५॥ ६१२. लोक में पापकर्म (के स्वरूप) को जानने वाला मेधावी (साधुमर्यादा में स्थित या सद्असद् विवेकी साधु) (सभी बन्धनों से) छूट जाता है; क्योंकि नया कर्म (बन्धन) न करने वाले पुरुष के सभी पापकर्म (बन्धन) टूट जाते हैं।
६१३. जो पुरुष कर्म (मन-वचन-काया से व्यापारक्रिया) नहीं करता, उसके नवीन (ज्ञानावरणीयादि) कर्मबन्ध नहीं होता। वह (कर्म मुमुक्षु साधक) अष्टविध कर्मों को विशेषरूप से जान लेता है, फिर वह (कर्म विदारण करने में) महावीर पुरुष (भगवत्प्रतिपादित समग्र कर्मविज्ञान को) जानकर, ऐसा पुरुषार्थ करता है, जिससे न तो वह (संसार में कभी) जन्म लेता है और न ही मरता है।
६१४. जिसके पूर्वकृत कर्म नहीं है, वह महावीर साधक जन्मता-मरता नहीं है। जैसे हवा अग्नि की ज्वाला का उल्लंघन कर जाती है, वैसे ही इस लोक में महान् अध्यात्मवीर साधक मनोज्ञ (प्रिय) स्त्रियों (स्त्रीसम्बन्धी काम-भोगों) को उल्लंघन कर जाता है, अर्थात् वह स्त्रियों के वश में नहीं होता।
६१५. जो साधकजन स्त्रियों का सेवन नहीं करते, वे सर्वप्रथम मोक्षगामी (आदिमोक्ष) होते हैं। समस्त (कर्म) बन्धनों से मुक्त वे साधुजन (असंयमी) जीवन जीने की आकांक्षा नहीं करते।
६१६. ऐसे वीर साधक जीवन को पीठ देकर (पीछे करके) कर्मों का अन्त (क्षय) प्राप्त करते हैं। जो साधक (संयमानुष्ठान द्वारा) मोक्ष मार्ग पर आधिपत्य (शासन) कर लेते हैं, अथवा मुमुक्षुओं को मोक्षमार्ग में अनुशासित (शिक्षित) करते हैं, वे विशिष्ट कर्म (धर्म के आचरण) से मोक्ष के सम्मुख हो जाते हैं ।
६१७. उन (मोक्षाभिमुख साधकों का) अनुशासन (धर्मोपदेश) भिन्न-भिन्न प्राणियों के लिए भिन्नभिन्न प्रकार का होता है। वसुमान् (संयम का धनी), पूजा-प्रतिष्ठा में अरुचि रखनेवाला, आशय (वासना) से रहित, संयम में प्रयत्नशील, दान्त (जितेन्द्रिय) स्वकृत प्रतिज्ञा पर दृढ़ एवं मैथुन से सर्वथा विरत साधक ही मोक्षाभिमुख होता है।