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________________ गाथा ६०७ से ६११ ४४३ ६१०. प्राणियों के साथ बैर-विरोध न करे, यही तीर्थंकर का या सुसंयमी का धर्म है। सुसंयमी साध (त्रस-स्थावर रूप) जगत का स्वरूप सम्यकरूप से जानकर इस वीतराग-प्रतिपादित धर्म में जीवित भावना (जीव-समाधानकारिणी पच्चीस या बारह प्रकार की भावना) करे। ६११. भावनाओं के योग (सम्यक्प्रणिधान रूप योग) से जिसका अन्तरात्मा शुद्ध हो गया है, उसकी स्थिति जल में नौका के समान (संसार समुद्र को पार करने में समर्थ) कही गई है। किनारे पर पहुँची हुई नौका विश्राम करती है, वैसे ही भावनायोगसाधक भी संसार समुद्र के तट पर पहुंचकर समस्त दुःखों से मुक्त हो जाता है । विवेचन-अनुत्तरज्ञानी और तत्कथित भावनायोग-साधना-प्रस्तुत पांच सूत्र गाथाओं में शास्त्रकार ने मुख्यतया दो तथ्यों को अभिव्यक्त किया है-(१) अनुपम ज्ञानवान् तीर्थंकर का माहात्म्य और (२) उनके द्वारा कथित भावनायोग की साधना। अनुपम ज्ञानी तीर्थंकर के और अन्यदर्शनी के ज्ञान में अन्तर-तीर्थंकर ज्ञानवरणीयादि घातिकर्म चतुष्टय का क्षय करने के कारण त्रिकालज्ञ हैं, द्रव्य-पर्याय सहित सर्व पदार्थ के ज्ञाता हैं, उन्होंने संशय-विपर्ययअनध्यवसायरूप मिथ्या ज्ञान का अन्त कर दिया है, इसलिए उनके सदृश पूर्णज्ञान किसी तथागत बुद्ध आदि अन्य दार्शनिक का नहीं है, क्योंकि अन्य दार्शनिकों के घातिकर्मचतुष्टय का सर्वथा क्षय न होने से वे त्रिकालज्ञ नहीं होते, और न ही द्रव्य-पर्याय सहित सर्व पदार्थज्ञ होते हैं। यदि वे (अन्यतीथिक) त्रिकालज्ञ होते तो वे कर्मबन्ध एवं कर्म से सर्वथा मोक्ष के उपायों को जानते, हिंसादि कर्मबन्ध कारणों से दूर रहते, उनके द्वारा मान्य या रचित आगमों में एक जगह प्राणिहिंसा का निषेध होने पर भी जगह-जगह आरम्भादि जनित हिंसा का विधान किया गया है। ऐसा पूर्वापर विरोध न होता । इसके अतिरिक्त कई दार्शनिक द्रव्य को ही मानते हैं, कई (बौद्ध आदि) पर्याय को ही मानते हैं, तब वे 'तीर्थंकर सदृश सर्वपदार्थज्ञाता' कैसे कहे जा सकते हैं ? कई दार्शनिक कहते हैं-'कीड़ों की संख्या का ज्ञान कर लेने से क्या लाभ ? अभीष्ट वस्तु का ज्ञान ही उपयोगी है।' उन लोगों का ज्ञान भी पूर्णतया अनावृत नहीं है, तथा जैसे उन्हें कीट-संख्या का परिज्ञान नहीं है, वैसे दूसरे पदार्थों का ज्ञान न होना भी सम्भव है। अतः उनका ज्ञान तीर्थंकर की तरह अबाधित नहीं है। ज्ञानबाधित और असम्भव होने से सर्वज्ञता एवं सत्यवादिता दूषित होती है।' सर्वज्ञ वीतराग ही सत्य के प्रतिपादक-अन्य दर्शनी पूर्वोक्त कारणों से सर्वज्ञ न होने से वे सत्य (यथार्थ) वक्ता नहीं हो सकते, क्योंकि उनके कथन में अल्पज्ञता के कारण राग, द्वेष, पक्षपात, मोह आदि अवश्यम्भावी हैं, फलतः उनमें पूर्ण सत्यवादिता एवं प्राणिहितैषिता नहीं होती, जबकि सर्वज्ञ तीर्थकर राग-द्वेषमोहादि विकाररहित होने से वे सत्यवादी हैं, जीवादि पदार्थों का यथार्थ (पूर्ण सत्य) प्रतिपादन करते हैं, (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक २५४ (ख) सर्वं पश्यतु वा मा वा, तत्त्वमिष्टं तु पश्यतु । कीटसंख्या परिज्ञानं, तस्य नः क्वोपयुज्यते ॥
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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