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गाथा ५६७ से ६०६
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६०१. सूत्र और अर्थ के सम्बन्ध में शंकारहित होने पर भी, 'मैं ही इसका अर्थं जानता हूँ, दूसरा नहीं;' इस प्रकार का गर्व न करे, अथवा अशंकित होने पर भी शास्त्र के गूढ़ शब्दों की व्याख्या करते समय शंका ( अन्य अर्थ की सम्भावना ) के साथ कहे, अथवा स्पष्ट (शंका रहित) अर्थ को भी इस प्रकार न कहे, जिससे श्रोता को शंका उत्पन्न हो तथा पदार्थों की व्याख्या विभज्यवाद से सापेक्ष दृष्टि से अनेकान्त रूप से करे । धर्माचरण करने में समुद्यत साधुओं के साथ विचरण करता हुआ साधु दो भाषाएँ (सत्या और असत्यामृषा) बोले सुप्रज्ञ (स्थिरबुद्धि सम्पन्न ) साधु धनिक और दरिद्र दोनों को समभाव से धर्म कहे ।
६०२. पूर्वोक्त दो भाषाओं का आश्रय लेकर शास्त्र या धर्म की व्याख्या करते हुए के कथन को कोई व्यक्ति यथार्थ समझ लेता है, और कोई मन्दमति व्यक्ति उसे अयथार्थ रूप में (विपरीत) समझता है, ऐसी स्थिति में ) साधु उस विपरीत समझने वाले व्यक्ति को जैसे-जैसे समीचीन हेतु, युक्ति उदाहरण एवं तर्क आदि से वह समझ सके, वैसे-वैसे हेतु आदि से अकर्कश ( कटुतारहित - कोमल) शब्दों में समझाने का प्रयत्न करे । किन्तु जो ठीक नहीं समझता है, उसे तू मूर्ख है, दुर्बुद्धि है, जड़मति है, इत्यादि तिरस्कारसूचक वचन कहकर उसके मन को दुःखित न करे, तथा प्रश्नकर्ता की भाषा को असम्बद्ध बता कर उसकी विडम्बना न करे, छोटी-सी (थोड़े शब्दों में कही जा सकने वाली ) बात को व्यर्थ का शब्दाडम्बर करके विस्तृत न करे ।
६०३. जो बात संक्षेप में न समझाई जा सके उसे साधु विस्तृत ( परिपूर्ण) शब्दों में कह कर समझाए । गुरु से सुनकर पदार्थ को भलीभाँति जानने वाला ( अर्थदर्शी) साधु आज्ञा से शुद्ध वचनों का प्रयोग करे । साधु पाप का विवेक रखकर निर्दोष वचन बोले ।
६०४. तीर्थंकर और गणधर आदि ने जिस रूप में आगमों का प्रतिपादन किया है, गुरु से उनकी अच्छी तरह शिक्षा ले, (अर्थात् — ग्रहण शिक्षा द्वारा सर्वज्ञोक्त आगम का अच्छी तरह ग्रहण करे और आसेवना शिक्षा द्वारा उद्युक्त विहारी होकर तदनुसार आचरण करे ) ( अथवा दूसरों को भी सर्वज्ञोक्त आगम अच्छी तरह सिखाए ) । वह सदैव उसी में प्रयत्न करे । मर्यादा का उल्लंघन करके अधिक न बोले । सम्यक्हृष्टिसम्पन्न साधक सम्यकदृष्टि को दूषित न करे ( अथवा धर्मोपदेश देता हुआ साधु किसी सम्यष्टि की दृष्टि को (शंका पैदा करके) बिगाड़े नहीं । वही साधक उस (तीर्थंकरोक्त सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र-तपश्चरणरूप) भाव समाधि को कहना जानता है ।
६०५. साधु आगम के अर्थ को दूषित न करे, तथा वह सिद्धान्त को छिपा कर न बोले । स्व-परता साधु सूत्र और अर्थ को अन्यथा न करे । साधु शिक्षा देने वाले (प्रशास्ता - गुरु) की भक्ति का ध्यान रखता हुआ सोच-विचार कर कोई बात कहे, तथा साधु ने गुरु से जैसा सुना है, वैसा ही दूसरे के समक्ष सिद्धान्त या शास्त्रवचन का प्रतिपादन करे ।
६०६. जिस साधु का सूत्रोच्चारण, सूत्रानुसार प्ररूपण एवं सूत्राध्ययन शुद्ध है, जो शास्त्रोक्त तप ( उपधान तप) का अनुष्ठान करता है, जो श्रुत चारित्ररूप धर्म को सम्यक्रूप से जानता या प्राप्त करता है अथवा जो उत्सर्ग के स्थान पर उत्सर्ग-मार्ग की और अपवाद - मार्ग के स्थान पर अपवाद की