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सूत्रकृतांग - तेरहवाँ अध्ययन यांचातथ्य संगत हो, वही कहे । ( यह ध्यान रखे कि ) प्राणी अकेला ही परलोक जाता है, और अकेला ही आता (परलोक से आगति करता ) है ।
५७५. स्वयं जिनोक्त धर्म सिद्धान्त (चतुर्गतिक संसार उसके मिथ्यात्वादि कारण तथा समस्त कर्मक्षय रूप मोक्ष, एवं उसके सम्यग्दर्शनादि धर्मं रूप कारण आदि) को भलीभाँति जानकर अथवा दूसरे से सुनकर प्रजाओं (जनता) के लिए हितकारक धर्म का उपदेश दे । जो कार्य निन्द्य (गर्हित) हैं, अथवा जो कार्य निदान ( सांसारिक फलाकांक्षा) सहित किये जाते हैं, सुधीर वीतराग धर्मानुयायी साधक उनका सेवन नहीं करते ।
५७६. किन्हीं लोगों के भावों (अभिप्रायों) को अपनी तर्कबुद्धि से न समझा जाए तो वे उस उपदेश पर श्रद्धा न करके क्षुद्रता (क्रोध आक्रोश-प्रहारादि) पर भी उतर सकते हैं तथा वे (उपदेश देने वाले की दीर्घकालिक आयु को भी (आघात पहुंचा कर) घटा रुवते है ( उसे मार भी सकते हैं) । इसलिए साधु (पहले) अनुमान से दूसरों का अभिप्राय (भाव) जानकर फिर धर्म का उपदेश दे ।
५७७. धीर साधक श्रोताओं के कर्म (जीविका, व्यवसाय या आचरण) एवं अभिप्राय को सम्यक् प्रकार से जानकर (विवेक व रके) धर्मोपदेश दे । (उपदेश द्वारा) (श्रोताओं के जीवन में प्रविष्ट) आय ( मिथ्यात्वादि दुष्कर्मों की आय वृद्धि को अथवा अनादिकालाभ्यस्त मिथ्यात्वादि आत्मभाव को ) सर्वथा या सब ओर से दूर करे । तथा उन्हें यह समझाए कि स्त्रियों के ( बाहर से सुन्दर दिखाई देने वाले) रूप से ( उसमें आसक्त जीव) विनष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार विद्वान् (धर्मोपदेशाभिज्ञ) साधक श्रोताओं ( दूसरों का अभिप्राय जानकर त्रस स्थावरों के लिए हितकर धर्म का उपदेश करे ।
५७८. साधु (धर्मोपदेश के द्वारा) अपनी पूजा (आदर-सत्कार) और श्लाघा (कीर्ति - प्रसिद्धि या प्रशंसा) की कामना न करे, तथा उपदेश सुनने-न सुनने या सुनकर आचरण करने न करने वाले पर प्रसन्न या अप्रसन्न होकर किसी का प्रिय ( भला ) या अप्रिय ( बुरा) न करे ( अथवा किसी पर राग या द्वेष न करे) । (पूर्वोक्त) सभी अनर्थों ( अहितकर बातों) को छोड़ता हुआ साधु आकुलता रहित एवं कषाय-रहित धर्मोपदेश दे 1
विवेचन - सुसाधु द्वारा बथातथ्य धर्मोपदेश के प्रेरणासूत्र - प्रस्तुत पांच सूत्रगाथाओं में सुसाधुओं द्वारा मुनिधर्म की मर्यादा में अबाधक यथातथ्य धर्मोपदेश करने या धर्मयुक्त मार्ग दर्शन देने के कतिपय प्रेरणासूत्र अंकित किये हैं । वे क्रमशः इस प्रकार हैं
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(१) संयम में अरति और असंयम में रति पर विजय पाकर साधु एकान्ततः धर्म या संयम से अविरुद्ध या संगत हो, भले ही वह बहुत से साथी साधुओं के अकेला हो ।
वही बात कहे, जो साथ रहता हो या
(२) वह धर्म का महत्त्व बताने हेतु प्रेरणा करे कि जीव अकेला ही कर्म करता है, अकेला ही उसका फल भोगता है, अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही मरकर परलोक में जाता है, धर्म के सिवाय उसका कोई सहायक नहीं है ।