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सूत्रकृतांग-तेरहवां अध्ययन-याथातथ्य
आगम-वाणी के त्राता आधारभूत (गोत्र) मौनीन्द्र (सर्वज्ञ वीतराग) के पद-मार्ग में अथवा मौनपद (संयमपथ) में स्थित नहीं है । वास्तव में संयम लेकर जो ज्ञानादि का मद करता है, वह परमार्थतः सर्वज-मार्म को नहीं जानता-वह मूढ़ है।
५६६. जो ब्राह्मण है अथवा क्षत्रिय जातीय है, तथा उग्र (वंशीय क्षत्रिय-) पुत्र है, अथवा लिच्छवी (गण का क्षत्रिय) है, जो प्रवजित होकर परदत्तभोजी (दूसरे-गृहस्थ के द्वारा दिया हुआ आहार सेवन करने वाला) है, जो अभिमान योग्य स्थानों से पूर्व सम्बन्धित होकर भी अपने (उच्च) गोत्र का मद नहीं करता. वही सर्वज्ञोक्त याथातथ्य चारित्र में प्रवृत्त साधु है।
५६७. भलीभांति आचरित (सेवित) ज्ञान (विद्या) और चारित्र (चरण) के सिवाय (अन्य) साधक की जाति अथवा कुल (दुर्गति से) उसकी रक्षा नहीं कर सकते। जो प्रव्रज्या लेकर फिर गृहस्थ कर्म (सावद्य कर्म, आरम्भ) का सेवन करता है वह कर्मों से विमुक्त होने में समर्थ नहीं होता।
विवेचन-कुसाधु के कुशील और सुसाधु के सुशील का यथातथ्य निरूपण-प्रस्तुत १० सूत्रगाथाओं में कुसाधुओं और सुसाधुओं के कुशील एवं सुशील का यथार्थ निरूपण किया गया है।
कुसाधुनों के कुशीन का यथातथ्य इस प्रकार है-(१) अहर्निश सदनुष्ठान में उद्यत श्रुतधरों या तीर्थंकरों से श्रतचारित्र धर्म को पाकर उनके द्वारा कथित समाधि का सेवन नहीं करते (२) अपने उपकारी प्रशास्ता की निन्दा करते हैं. (३) वे इस विशुद्ध सम्यग्दर्शनादि युक्त जिन मार्ग की परम्परागत व्याख्या से विपरीत प्ररूपणा करते हैं; (४) अपनी स्वच्छन्दकल्पना से सूत्रों का विपरीत अर्थ करते हैं, (५) वीतराग सर्वज्ञ के ज्ञान में कुशंका करके मिथ्याभाषण करते हैं, (६) वे पूछने पर आचार्य या गुरु का नाम छिपाते हैं, अतः मोक्षरूप फल से स्वयं को वंचित करते हैं, (७) वे धार्मिक जगत् में वस्तुतः असाधु होते हुए भी स्वयं को मायापूर्वक सुसाधु मानते हैं, (८) वे प्रकृति से क्रोधी होते हैं, (९) बिना सोचे विचारे बोलते हैं, या परदोषभाषी हैं, (१०) वे उपशान्त कलह को पुनः उभारते हैं, (११) वे सदैव कलहकारी व पापकर्मी होते हैं, (१२) न्याय विरुद्ध बोलते हैं, (१३) ऐसे कुसाधु सम (राग द्वष रहित या मध्यस्थ अथवा सम्यग्दृष्टि के समान नहीं) हो पाते । (१४) अपने आपको महाज्ञानी अथवा सुसंयमी मान कर बिना ही परीक्षा किये अपनी प्रशंसा करते हैं, (१५) मैं बहुत बड़ा तपस्वी हैं, यह मानकर दूसरों को तुच्छ मानते हैं, (१६) वह अहंकारी साधु एकान्तरूप से मोहरूपी कूटपाश में फंसकर संसार परिभ्रमण करता है, वह सर्वज्ञ प्रभु के मार्ग या पद में स्थित नहीं है (१७) जो संयमी होकर सम्मान-सत्कार पाने के लिए ज्ञान, तप, लाभ आदि का मद करता है, वह मूढ़ है, परमार्थ से अनभिज्ञ है। (१८) जिनमें ज्ञान और चारित्र नहीं है, जाति, कुल आदि उनकी रक्षा नहीं कर सकते, अतः प्रब्रज्या ग्रहण कर जो जाति, कूल आदि का मद करता है, एवं गृहस्थ के कर्मों (सावद्यकर्मों) का सेवन करता है, वह असाधू अपने कर्मों का क्षय करने में समर्थ नहीं होता।
२ (क) सूत्रकृतांग शी० वृत्ति पत्रांक २३२ से २३५
(ख) सूत्र० गाथा ५५८ से ५६२, ५६४ से ५६७ तक