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गाथा ५३५ से ५३६
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है। फिर ज्ञानाभाव (अज्ञान) अभाव रूप होने से तुच्छ, रूपरहित एवं शक्ति रहित हुआ, वह कैसे कल्याणकर होगा? अतः ज्ञान कल्याण साधन है, अज्ञान नहीं।
परस्पर विरुद्धभाषी अज्ञानवावी या ज्ञानवादी-अज्ञानवादियों का कथन है कि सभी ज्ञानवादी पदार्थ का स्वरूप परस्पर विरुद्ध बताते हैं इसलिए वे यथार्थवादी नहीं हैं। जैसे-कोई आत्मा को सर्वव्यापी, कोई असर्वव्यापी, कोई हृदयस्थित, कोई उसे ललाटस्थित और कोई उसे अंगूठे के पर्व के तुल्य मानता है । कोई आत्मा को नित्य और अमूर्त तथा कोई अनित्य और मूर्त मानता है। परस्पर एकमत नहीं किसका कथन प्रमाणभूत माना जाए, किसका नहीं ? जगत् में कोई अतिशयज्ञानी (सर्वज्ञ) भी नहीं, जिसका कथन प्रमाण माना जाए। सर्वज्ञ हो तो भी असर्वज्ञ (अल्पज्ञ) उसे जान नहीं सकता; और सर्वज्ञ को जानने का उपाय भी सर्वज्ञ बने बिना नहीं जान सकता। यही कारण है कि सर्वज्ञ के अभाव में असर्वज्ञों (ज्ञानवादियों) को वस्तु के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान न होने से वे पदार्थों का स्वरूप परस्पर विरुद्ध बताते हैं।
इन सब आक्षेपों का उत्तर यह है कि अज्ञानवादी स्वयं मिथ्यादृष्टि हैं। सम्यग्ज्ञान से रहित हैं, वे संशय और भ्रम से ग्रस्त हैं । वास्तव में परस्पर या पूर्वापर विरुद्ध अर्थ बताने वाले लोग असर्वज्ञ • के आगमों को मानते हैं परन्तु इससे समस्त सिद्धान्तों को आँच नहीं आती। सर्वज्ञप्रणीत आगमों को मानने वाले वादियों के वचनों में परस्पर या पूर्वापर विरोध नहीं आता। क्योंकि जहां पूर्वापर या परस्पर विरुद्ध कथन होगा, वहाँ सर्वज्ञता ही नहीं होती। सर्वज्ञता के लिए ज्ञान पर आया हुआ आवरण सर्वथा दूर हो जाना तथा असत्य या परस्पर असम्बद्ध या विरुद्ध भाषण के कारणभूत जो राग, द्वेष मोह आदि हैं, उनका सर्वथा नष्ट हो जाना अवश्यम्भावी है। सर्वज्ञ में इन दोषों का सर्वथा अभाव होने से उसके वचन सत्य हैं, परस्पर विरुद्ध नहीं हैं ।
प्रत्यक्ष प्रमाण से सर्वज्ञ सिद्ध न होने पर भी उसके अस्तित्व से इन्कार नहीं किया जा सकता। 'सम्भव' और 'अनुमान' प्रमाण से सर्वज्ञ की सिद्धि होती है, क्योंकि सर्वज्ञ असम्भव है, ऐसा कोई सर्वज्ञता बाधक प्रमाण नहीं है, और न ही प्रत्यक्ष प्रमाण में सर्वज्ञ का अभाव सिद्ध होता है, नहीं सर्वज्ञाभाव के साथ कोई अव्यभिचारी हेतु है । सर्वज्ञाभाव के साथ किसी का सादृश्य न होने से उपमान प्रमाण से भी सर्वथाभाव सिद्ध नहीं होता। प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सर्वथाभाव सिद्ध न होने से अर्थापत्ति प्रमाण से भी सर्वथाभाव सिद्ध नहीं होता। आगम प्रमाण से भी सर्वथाभाव सिद्ध नहीं होता, क्योंकि सर्वज्ञ का अस्तित्व बताने वाला आगम विद्यमान है । स्थूलदर्शी पुरुष का ज्ञान सर्वज्ञ तक नहीं पहुंचाता, इस कारण भी सर्वज्ञ का अभाव नहीं कहा जा सकता। सर्वज्ञ के अस्तित्व का बाधक कोई प्रमाण नहीं मिलता, बल्कि सर्वज्ञसाधक प्रमाण ही मिलते हैं, इसलिए सर्वज्ञ न मानना अज्ञानवादियों का मिथ्या कथन है।
फिर सर्वज्ञ प्रणीत आगमों को मानने वाले सभी एकमत से आत्मा को सर्व शरीर व्यापी मानते हैं, क्योंकि आत्मा का गुण चैतन्य समस्त शरीर, किन्तु स्वशरीर पर्यन्त ही देखा जाता है। अतः सर्वज्ञ प्रणीत आगम ज्ञानवादी परस्पर विरुद्धभाषी नहीं हैं।