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________________ गाथा ५२८ से ५३४ ३६७ दूर न होने से अनार्य हैं । वे सम्यग्दर्शन रहित होने के कारण विषय प्राप्ति का ही दुर्ध्यान करते हैं, (५) सम्यग्दर्शनादि धर्म रूप जो निर्दोष मोक्ष मार्ग है, उससे भिन्न कुमार्ग की प्ररूपणा करने तथा सांसारिक राग के कारण बुद्धि कलुषित और मोह- दूषित होने से सम्माग की विराधना करके कुमार्गाचरण करने के कारण वे शुद्ध भाव मार्ग से दूर हैं, (६) छिद्र वाली नौका में बैठा हुआ जन्मान्ध व्यक्ति नदी पार न होकर मंझधार में डूब जाता है, इसी प्रकार आश्रव रूपी छिद्रों से युक्त कुदर्शनादि युक्त कुधर्म नौका में बैठे होने के कारण वे भी संसार सागर के पार न होकर बीच में ही डूब जाते हैं । भावमार्ग की साधना ५२८. इमं च धम्ममादाय, कासवेण पवेदितं । तरे सोयं महाघोरं, अत्तत्ताए परिव्व ॥ ३२ ॥ ५२६. विरते गामधम्मेहि, जे केइ जगती जगा । तेस अत्तृवमायाए, थामं कुव्वं परिव्व ॥ ३३ ॥ ५३०. अतिमाणं च मायं च तं परिण्णाय पंडिते । सव्वमेयं निराकिच्चा, निव्वाणं संधए मुणो ॥ ३४ ॥ ५३१. संघते साहुधम्मं च, पावं धम्मं गिराकरे । उधाणवीरिए भिक्खु, कोहं माणं न पत्थए || ३५ ॥ ५३२. जे य बुद्धा अतिक्कंता, जे य बुद्धा अणागता । संति सि पतिट्ठाणं, भूयाणं जगती जहा ॥ ३६ ॥ ५३३. अह णं वतमावण्णं, फासा उच्चावया फुसे । ण तेसु विणिहण्णेज्जा, वातेणेव महागिरी ॥३७॥ ५३४. संबुडे से महापण्णे, धीरे दत्तेसणं चरे । frogs कालमाकखी, एवं केवलिणो मयं ॥ ३८ ॥ ति बेमि । ॥ मग्गो : एगारसमं अज्झयणं सम्मत्तं ॥ ५२८. काश्यपगोत्रीय भगवान् महावीर द्वारा प्ररूपित इस ( दुर्गति निवारक मोक्षप्रापक सम्यग्दर्शन ज्ञान-चारित्र रूप) धर्म को ग्रहण ( स्वीकार) करके शुद्ध मार्ग साधक साधु महाघोर (जन्म-मरणादि दीर्घकालिक दुःखपूर्ण) संसार सागर को पार करे तथा आत्मरक्षा के लिए संयम में पराक्रम करे । ५२६. साधु ग्राम धर्मों (शब्दादि विषयों) से निवृत्त (विरत) होकर जगत् में जो कोई ( जीवितार्थी) प्राणी हैं, उन सुखप्रिय प्राणियों को आत्मवत् समझ कर उन्हें दुःख न पहुँचाए, उनकी रक्षा के लिए पराक्रम करता हुआ संयम - पालन में प्रगति करे ।
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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