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मागे-एकादश अध्ययन
प्राथमिक प्रस्तुत सूत्रकृतांग (प्र० श्रु०) के ग्यारहवें अध्ययन का नाम 'मार्ग है। - नियुक्तिकार ने 'मार्ग' के नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से छह निक्षेप
किये हैं। नाम-स्थापना मार्ग सुगम है। द्रव्यमार्ग विभिन्न प्रकार के होते हैं. जैसे-फलकमार्ग, लतामार्ग, आन्दोलकमार्ग, वेत्रमार्ग, रज्जुमार्ग, दवन (वाहन) माग, कोलमार्ग (ठुकी हुईं कील के संकेत से पार किया जाने वाला) पाशमार्ग, बिल (गुफा) मार्ग, अजादिमार्ग, पक्षिमार्ग, छनमार्ग, जलमार्ग, आकाशमार्ग आदि । इसी तरह क्षेत्रमार्ग (जो मार्ग ग्राम, नगर, खेत, आदि जिस क्षेत्र में जाता है, वह) तथा कालमार्ग (जिस काल में मार्ग बना, वह) है, भावमार्ग वह है, जिससे आत्मा
को समाधि या शान्ति प्राप्त हो। - प्रस्तुत अध्ययन में 'भावमार्ग' का निरूपण है । वह दो प्रकार का है-प्रशस्त और अप्रशस्त ।
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मोक्षमार्ग प्रशस्त भावमार्ग है । संक्षेप में इसे संयममार्ग या श्रमणाचारमार्ग कहा जा सकता है । अप्रशस्त भावमार्ग मिथ्यात्व, अविरति और अज्ञान आदि पूर्वक की जाने वाली प्रवृत्ति है।' प्रशस्त भावमार्ग को ही तीर्थंकर-गणधरादि द्वारा प्रतिपादित तथा यथार्थ वस्तुस्वरूपप्रतिपादक होने से सम्यग्मार्ग या सत्यमार्ग कहा गया है। इसके विपरीत अन्यतीथिकों या कुमार्गग्रस्त पार्श्वस्थ, स्वच्छन्द, कुशील आदि स्वयूथिकों द्वारा सेवित मार्ग अप्रशस्त है, मिथ्यामार्ग है । प्रशस्त मार्ग तप, संयम आदि प्रधान समस्त प्राणिवर्ग के लिए हितकर, सर्वप्राणिरक्षक, नवतत्त्वस्वरूपप्रतिपादक, एवं अष्टादश सहस्रशीलगुणपालक साधुत्व के आचारविचार से ओत-प्रोत है। नियुक्तिकार ने इसी सत्य (मोक्ष) मार्ग के १३ पर्यायवाचक शब्द बताए हैं-(१) पंथ, (२) मार्ग (आत्मपरिमार्जक). (३) न्याय (विशिष्ट स्थानप्रापक), (४) विधि (सम्यग्दर्शन एवं ज्ञान का यगपत् प्राप्ति-कारक), (५) धृति (सम्यग्दर्शनादि से युक्त चारित्र में स्थिर रखने वाला, (६) सुगति (सुगतिदायक), (७) हित (आत्मशुद्धि के लिए हितकर), (८) सुख (आत्मसुख का कारण), (६) पथ्य (मोक्षमार्ग के लिए अनुकूल, (१०) श्रेय (११वें गुणस्थान के चरम समय में मोहादि उप
१ (क) सूत्रकृतांग नियुक्ति गा० १०७ से ११० तक (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक १९६