SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 427
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७८ सूत्रकृतांग-दशम अध्ययन-समाधि पथ पर) विचरण करे। एवं यह देखे कि प्राणी इस संसार में दुःख (असातावेदनीयोदयरूप अथवा स्वकृत अष्ट विधकर्मरूप दुःख) से आर्त (पीड़ित) और सब प्रकार से संतप्त हो (अथवा आर्तध्यान करके मनवचन-काया से संतापानुभव कर रहे हैं । ४७७. अज्ञानी जीव इन (पूर्वोक्त पृथ्वीकाय आदि) प्राणियों को छेदन-भेदन-उत्पीड़न आदि के रूप में कष्ट देकर अत्यन्त पापकर्म करता हआ (उनके फलस्वरूप) इन्हीं पथ्वीकायादि योनियों में बारबार जन्म लेता है, और उसी रूप में पीड़ित होता है। प्राणातिपात स्वयं करने से प्राणी ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का उपार्जन करता है, तथा दूसरों को प्राणातिपातादि पापकर्मों में प्रेरित करके भी पाप (कर्मों का बन्ध) करता है। ४७८. जो साधक दीनवृत्ति (कंगाल भिखारी की तरह या पिण्डोलक की तरह) से भोजन प्राप्त करता है, वह भी पाप करता है। यह जानकर तीर्थंकरों ने एकान्त (भावरूप ज्ञानादि) समाधि का उपदेश दिया है। इसलिए प्रबुद्ध (विचारशील तत्त्वज्ञ) स्थितात्मा (स्थिर बुद्धि) साधक भावसमाधि और विवेक में रत होकर प्राणातिपात से विरत रहे। ४७६. साधु समस्त जगत (प्राणिसमूह) को समभाव से देखे। वह किसी का भी प्रिय (रागभाव प्रेरित व्यवहार) या अप्रिय (द्वपनाकरित व्यवहार) न करे। कोई व्यक्ति प्रवजित होकर (परीषहों एवं उपसर्गों की बाधा आने पर) दीन और फिर विषण्ण हो जाता है, अथवा विषयार्थी होकर पतित हो जाता है, कोई अपनी प्रशंसा का अभिलाषी होकर वस्त्रादि से सत्कार (पूजा) चाहता है। ४८०. जो (व्यक्ति प्रवजित होकर) आधाकर्म आदि दोषदूषित आहार की अत्यन्त लालसा करता है, तथा जो वैसे आहार के लिये निमन्त्रण आदिपूर्वक इधर-उधर खूब भटकता है, वह (पार्श्वस्थ आदि कुशीलों के) विषण्ण भाव को प्राप्त करना चाहता है । तथा जो स्त्रियों में आसक्त होकर उनके अलगअलग हास्य, विलास, भाषण आदि में अज्ञानी (सद्-असद्-विवेक रहित) की तरह मोहित हो जाता है, वह (स्त्रियों की प्राप्ति के लिए) परिग्रह (धनादि का संग्रह) करता हआ पापकर्म का संचय करता है। ४८१. जो व्यक्ति (हिंसादि करके) प्राणियों के साथ जन्म-जन्मान्तर तक वैर बांधता है, वह पापकर्म का निचय (वद्धि) करता है। वह यहाँ (इस लोक) से च्युत हो (मर) कर परमार्थतः दुर्गम नरकादि दुःख स्थानों में जन्म लेता है। इसलिए मेधावी (मर्यादावान विवेकी) मुनि (सम्पूर्णसमाधिगणमलक-श्रत चारित्ररूप) धर्म का सम्यक विचार या स्वीकार करके बाह्याभ्यन्तरसंगों (बन्धनों) से समग्र रूप से विमुक्त होकर मोक्ष (संयम) पथ में विचरण करे। ४८२. साधु इस लोक में चिरकाल तक जीने की इच्छा से आय (द्रव्योपार्जन या कर्मोपार्जन) न करे तथा स्त्री-पुत्र आदि में अनासक्त रहकर संयम में पराक्रम करे । साधु पूर्वापर विचार करके कोई बात कहे । (शब्दादि विषयों से) आसक्ति हटा ले तथा हिंसायुक्त कथा (उपदेश) न कहे। ४८३. (समाधिकामी) साधु आधाकर्मी आहार की कामना न करे, और न ही आधाकर्मी आहार की कामना करने वाले के साथ परिचय (संसर्ग) करे । (उत्कट तप से कर्मनिर्जरा होती है, इस प्रकार की) अनुप्रेक्षा करता हुआ साधु औदारिक शरीर को कृश करे (धुने) । शरीर (को पुष्ट या सशक्त
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy