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सूत्रकृतांग - नवम अध्ययन - धर्म
कठिन शब्दों की व्याख्या - धूणाऽऽदाणाई - कर्मों को ग्रहण करने के कारण अथवा कर्मों को जन्म देने वाले । आसूणि— वृत्ति और चूर्णि में इसकी दो व्याख्याएँ मिलती हैं - ( १ ) जिस घृतपान आदि पौष्टिक या शक्तिवर्द्धक आहारविशेष से या भस्म पारा आदि रसायन विशेष के सेवन से शरीर हृष्टपुष्ट होता हो, (२) श्वान - सी तुच्छ प्रकृति का साधक जरा-सी आत्म- श्लाघा या प्रशंसा से फूल ( सूज) जाता हो, गर्वस्फीत हो जाता हो । कयकिरिओ - ( आरम्भजनित) गृहनिर्माणदि बहुत सुन्दर किया है अथवा असंयतों के साथ विवाह - सगाई कामभोग आदि वासना एवं मोह में वृद्धि करने वाली बातें करना या इस प्रकार के असंयम कार्य की प्रशंसा करना । परिणायतणाणि - दो व्याख्याएं - ( १ ) ज्योतिषसम्बन्धी प्रश्नादि के उत्तर; आयतन - प्रकट करना बताना । (२) संसारी लोगों के परस्पर व्यवहार, मिथ्याशास्त्र अथवा प्रश्न के सम्बन्ध में यथार्थ बातें बताकर निर्णय देना । सागारिर्यापिडं तीन अर्थ:-सागारिक शय्यातर का पिण्ड (आहार) अथवा (२) सागारिक पिण्ड यानी सूतक गृहपिण्ड या ( ३ ) निन्द्य - जुगुप्सित दुराचारी का पिण्ड । अट्ठापदं न सिवखेज्जा तीन व्याख्याएँ - ( १ ) जिस पद - शास्त्र से धन, धान्य, सोना आदि प्राप्त किया जा सके, ऐसे शास्त्र का अध्ययन न करे, (२) द्यूतक्रीड़ा विशेष न सीखे, (३) अर्थ यानी धर्म या मोक्ष में आपद्कर - प्राणिहिंसा की शिक्षा देने वाला शास्त्र न सीखे, न ही दूसरों को सिखाए और न पूर्वशिक्षित ऐसे शास्त्र की आवृत्ति या अभ्यास करे । वेधादीयं = तीन अर्थ - (१) वेध का अर्थ है सद्धर्म के अनुकूलत्व और अतीत का अर्थ है-उससे रहित यानी सद्धर्मविरुद्ध, (२) अधर्मप्रधान, (३) वेध का अर्थ वस्त्रवेध - जुए सट्टे, अंक आदि जैसे (किसी द्यूत विशेष से सम्बन्धित बातें न बताए । वियडेण वा वि साह - विकट - विगतजीव - प्रासुक जल से, बीज या हरियाली (हरी वनस्पति) को
हटाकर ।
'परमत्ते अन्न पाणं च=पर [ गृहस्थ ] के पात्र में अत्रपानी का सेवन न करे । स्थविरकल्पी साधु के लिए गृहस्थ का पात्र परपात्र है, उसमें आहार करने या पेय पदार्थ पीने से पहले या पीछे गृहस्थ द्वारा उसे सचित्त जल से धोये जाने कदाचित् चुराये जाने या गिरकर टूट जाने की आशंका रहती हैं। इसलिए यह साध्वाचार विरुद्ध | स्थविरकल्प साधु के लिए हाथ की अंजलि में खाना-पीना भी परपात्र में खाना-पीना है, वह भी निषिद्ध है, क्योंकि स्थविरकल्पी साधु-साध्वियों की अंजलि छिद्रयुक्त होती है, उसमें आहार -पानी आदि नीचे गिर जाने से अयत्ना होने की सम्भावना है । जिनकल्पी के लिए हाथ की अंजलि स्वपात्र है, लकड़ी आदि के पात्र या गृहस्थ के पात्र में खाना-पीना परपात्र भोजन करना है। इसी तरह 'परवस्थमचेलो वि' = स्थविरकल्पी साधु के लिए गृहस्थ के वस्त्र परवस्त्र हैं- और जिनकल्पी के लिए दिशाएँ ही वस्त्र हैं, इसलिए सूत आदि से बने सभी वस्त्र परवस्त्र हैं । परवस्त्र का उपयोग करने में वे ही पूर्वोक्त खतरे हैं । आसंदी पलियंके य= आसंदी - वर्तमान युग में आरामकुर्सी या स्प्रिंगदार कुर्सी अथवा लचीली छोटी खाट तथा नीवार वाला स्प्रिंगदार लचीला पलंग । इन पर सोने बैठने या लेटने से कामोत्तेजना होने की तथा छिद्रों में बैठे हुए जीवों की विराधना होने की आशंका है; इसलिए इनका उपयोग वर्जित किया गया है । निसिज्जं च गिहंतरे = गृहान्तराल में बैठना ब्रह्मचर्य - विराधना की आशंका या लोकशंका अथवा अशोभा की दृष्टि से निषिद्ध किया है । संपुच्छणं = दो अर्थ मूलार्थ में दिये जा चुके हैं । इस तरह के सांसारिक पूछ-ताछ से अपना स्वाध्याय, ध्यान-साधना का अमूल्य समय व्यर्थ में नष्ट होता है ।