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४४३ च्चादित्तं च पुत्ते य, नायओ य परिग्गहं । चेच्चाण अंतगं सोयं निरवेक्खो परिव्वए ॥ ७ ॥
सूत्रकृतांग - नवम अध्ययन - धर्म
४३७. केवलज्ञानसम्पन्न, महामाहन (अहिंसा के परम उपदेष्टा ) भगवान् महावीर स्वामी ने कौनसा धर्म बताया है ? जिनवरों के द्वारा उपदिष्ट) उस सरल धर्म को यथार्थ रूप से मुझसे सुनो।
४३८-४३६. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, चाण्डाल अथवा वोक्कस (अवान्तर जातीय वर्णसंकर), एषिक ( शिकारी, हस्तितापस अथवा कन्दमूलादि भोजी पाषण्डी), वैशिक (माया - प्रधानकलाजीवी - जादूगर ) तथा शूद्र और जो भी आरम्भ में आसवत जीव हैं, एवं जो विविध परिग्रह में मूच्छित हैं, उनका दूसरे प्राणियों के साथ वैर बढ़ता है । वे काम भोग में प्रवृत्त ( विषयलोलुप ) जीव आरम्भ से परिपूर्ण (आरम्भमग्न ) हैं । वे दुःखों से या दुःखरूप कर्मों से मुक्त नहीं हो सकते
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४४०. विषय (सांसारिक सुख के अभिलाषी ज्ञातिजन या अन्य लोग दाहसंस्कार आदि मरणोत्तर ( - आघात) कृत्य करके मृतक व्यक्ति के उस धन को हरण कर (ले) लेते हैं, परन्तु नाना पापकर्म करके धन संचित करने वाला वह मृत व्यक्ति अकेला अपने पापकर्मों के फलस्वरूप दुःख भोगता है ।
४४१. अपने पापकर्म से संसार में पीड़ित होते हुए तुम्हारी रक्षा करने में माता, पिता, पुत्रवधू, पत्नी, भाई और औरस ( स ) पुत्र ( आदि) कोई भी समर्थ नहीं होते ।
४४२. स्वकृत पाप से दुःख भोगते हुए प्राणी की रक्षा कोई नहीं कर सकता, इस बात को तथा परमार्थ रूप मोक्ष या संयम के अनुगामी (कारण) सम्यग्दर्शनादि हैं, इसे सम्यक् जान- देख कर ] ममत्वरहित एवं निरहंकार (सर्वमदरहित) होकर भिक्षु जिनोक्त धर्म का आचरण करे ।
४४३. धन और पुत्रों को तथा ज्ञातिजनों और परिग्रह का त्याग करके अन्तर के शोक संताप को छोड़कर साधक निरपेक्ष (निस्पृह) होकर संयमपालन में प्रगति करे ।
विवेचन - जिनोक्त श्रमण धर्माचरण : क्यों और कैसे करें ? - प्रस्तुत सात सूत्रगाथाओं में विभित्र पहलुओं से यह बताया गया है कि जिनोक्त श्रमण धर्म का पालन क्यों और कैसे करना चाहिए ?
चार मुख्य कारणों से श्रमण धर्म का स्वीकार एवं पालन श्रेयस्कर - ( १ ) जो मानव चाहे वह ब्राह्मण, क्षत्रिय या चांडाल आदि कोई भी हों, आरम्भ-परिग्रहासक्त हैं, उनका प्राणियों के साथ दीर्घकाल तक वैर बढ़ता जाता है, (२) विषय - सुख - लोलुप आरम्भमग्न जीव दुःखों से मुक्त नहीं हो सकता । (३) ज्ञातिजन व्यक्ति की मरणोत्तर क्रिया करके पापकर्म द्वारा संचित उसका धन ले लेते हैं, किन्तु उन कृतपापों का फल उसे अकेले ही भोगना पड़ता है, (४) पापकर्म के फलस्वरूप पीड़ित होते हुए व्यक्ति को उसके स्वजन बचा नहीं सकते ।
इन सब बातों पर दीर्घ दृष्टि से विचार कर पूर्वोक्त चारों अनिष्टों से बचने के लिए व्यक्ति को सांसारिक गार्हस्थ्य प्रपंचों में न फंसकर जिनोक्त मोक्षमार्ग रूप (संयम) धर्म में प्रव्रजित होना तथा उसी का पालन करना श्रेयस्कर है ।
श्रमण धर्म का पालन कैसे करें ? - इसके लिए साधक (१) ममत्वरहित हो, (२) अहंकार शून्य हो, (३) धन, धाम, परिग्रह, स्त्री- पुत्रादि तथा ज्ञातिजनों के प्रति ममत्व का त्याग करे, (४) सांसारिक भोगों