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________________ सूत्रकृतांग-अष्टम अध्ययन-वीर्य दष्टि से दोनों की शास्त्रीय संज्ञा बता दी है। कारण में कार्य का उपचार करके प्रमाद को कर्म और अप्रमाद को अकर्म कहा गया है, अर्थात् प्रमादजनित कर्मों से युक्त जीव का कार्य बालवीर्य और अप्रमाद जनित अकर्मयुक्त जीव का कार्य पण्डितवीर्य है।' पाठान्तर और व्याख्या-कम्ममेगे पति अकम्मं वावि सुव्वता' के बदले चणिसम्मत पाठान्तर है'कम्ममेवं पभासंति अकम्मं वावि सुव्वता ।' अर्थात्-इस प्रकार सुव्रत तीर्थंकर कर्म को वीर्य कहते हैं और अकर्म को भी। दोनों वीर्यों का आधार : प्रमाद और अप्रमाद-जिसके कारण प्राणि वर्ग अपना आत्मभान भूलकर उत्तम अनुष्ठान से रहित हो जाता है, उसे 'प्रमाद' कहते हैं। वह पांच प्रकार का है-मद्य, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा। तीर्थंकरों ने प्रमाद को कर्मबन्धन का एक विशिष्ट कारण बताया है। प्रमाद के कारण जीव आत्मभान रहित होकर कर्म बाँधता है, वह अपनी सारी शक्ति (वीर्य) धर्म-विपरीत, अधर्म या पापयुक्त कार्यों में लगाकर कर्मबन्धन करता रहता है। इसीलिए प्रमादयुक्त सकर्मा जीव का जो भी क्रियानुष्ठान होता है, उसे बालवीर्य कहा है। इसके विपरीत प्रमादरहित पुरुष के कार्य के पीछे सतत आत्मभान, जागृति एवं विवेक होने के कारण उसके कार्य में कर्मबन्धन नहीं होता, वह अपनी सारी शक्ति अप्रमत्त होकर कर्मशा करने, हिंसादि आस्रवों तथा कर्मबन्ध के कारणों से दूर रहने एवं स्व-भावरमण में लगाता है। इसलिए ऐसे अप्रमत्त एवं अकर्मा साधक के पराक्रम को पण्डितवीर्य कहा है। निष्कर्ष यह है कि बालवीर्य और पण्डितवीर्य का मुख्य आधार क्रमशः प्रमाद और अप्रमाद है।' बालजनों का सकर्मवीर्य : परिचय और परिणाम ४१४. सत्थमेगे सुसिक्खंति, अतिवायाय पाणिणं । एगे मंते अहिज्जंति, पाणभूयबिहेडिणो॥ ४ ॥ ४१५. माइणो कटु मायाओ, कामभोगे समारभे । हंता छेत्ता पकत्तित्ता, आयसायाणुगामिणो॥ ५॥ ४१६. मणसा वयसा चेव, कायसा चेव अंतसो। आरतो परतो यावि, दुहा वि य असंजता ॥ ६ ॥ ४१७. वेराई कुव्वती वेरी, ततो वेरेहिं रज्जती। पावोवगा य आरंभा, दुक्खफासा य अंतसो ॥७॥ ४१८. संपरागं णियच्छंति, अत्तदुक्कडकारिणो। रोग-दोसस्सिया बाला, पावं कुव्वंति ते बहु॥८॥ १ सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक १६७-१६८ का सारांश २ सूयगडंग चूणि (मू० पा० टिप्पण) १०७४ ३ सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक १६८ का सारांश
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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